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च० खण्ड ]
पांचवाँ अध्याय : कला और विज्ञान
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मिलाकर उसका उपयोग किया जाता था ।' महामारी फैलने पर किसी सेठ के परिवार में जब दरवाजे को लोगों ने कांटों से
लोग फटाफट मरने लगते । जीर्णपुर के सब लोग मर गये तो उसके घर के जड़ दिया ।
कोढ़ हो जाने पर, जैन श्रमणों को बहुत कष्ट भोगना पड़ता था । यदि कहीं उन्हें गला हुआ कोढ़ (गलंतकोढ) हो जाता, या उनके शरीर में कच्छू ( खुजली ) या किटिभ ( खाज युक्त क्षुद्र कोढ़) हो जाता, या जूँए पैदा हो जातीं तो उन्हें निर्लोम चर्म पर लिटाया जाता । पामा (एक्ज़िमा ) को शान्त करने के लिए मेंढ़े की पुरीष और गोमूत्र काम में लिया जाता था । " किमिकुङ ( कृमिकुष्ठ) में कीड़े पड़ जाते थे । एक बार, किसी जैन भिक्षु को कृमिकुष्ठ की बीमारी लग गयो । वैद्य ने तेल, कंबलरत्न और गोशीर्ष चन्दन बताया । तेल तो मिल गया, लेकिन कंबलरत्न और चन्दन न मिला। पता लगा कि ये दोनों वस्तुएँ किसी वणिक् के पास हैं । शतसहस्र लेकर लोग वणिक के पास उपस्थित हुए, लेकिन उसने बिना कुछ लिए ही कंबल और चंदन दे दिये । साधु के शरीर में तेल की मालिश की गयी जिससे तेल उसके रोमकूपों में भर गया । इससे कृमि संक्षुब्ध होकर नीचे गिरने लगे । साधु को कंबल उढ़ा दिया गया और सब कृमि कंबल पर लग गये । बाद में शरीर पर गोशीर्ष चंदन का लेप कर दिया । दो-तीन बार इस तरह करने से कोढ़ बिल्कुल ठीक हो गया।
वायु आदि का उपशमन करने के लिए पैर में गीध की टाँग बांधी जाती थी । इसके लिए शूकर के दांत और नख तथा मेंढ़े के रोमों १. निशीथचूर्णोपीठिका २८८, पृ० १०० | तेल लगाने का भी विधान है, आवश्यकचूर्णी पृ० ५०३ ।
२. आवश्यकचूर्णी पृ० ४६५ ।
३. जंघासु कालाभं रसियं वहति, निशीथचूर्णा १.७९८ की चूर्णी । ४. बृहत्कल्पभाष्य ३.३८३९-४० । महावग्ग १.३०.८८, पृ० ७६ में उल्लेख है कि मगध में कुष्ठ, गंड ( फोड़ा ), किलास ( चर्मरोग ), सूजन और मृगी रोग फैल रहे थे । जीवक कौमारभृत्य को लोगों की चिकित्सा करने 1 का समय नहीं मिलता था, इसलिये रोग से पीड़ित लोग बौद्ध भिक्षु बनकर चिकित्सा कराने लगे ।
५. ओघनियुक्ति ३६८, पृ० १३४- अ ।
६. आवश्यकचूर्णी, पृ० १३३ ।