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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[ च० खण्ड
हैं । इसके विपरीत, थोड़ा-थोड़ा दूध गिराकर चाटनेवाले जाहग (सेही) के समान शिष्यों को प्रशस्त कहा गया है। ये शिष्य पूर्व - गृहीत अर्थ को याद करके प्रश्न पूछते हैं और आचार्य को कष्ट नहीं देते।
आगे चलकर, चार चतुर्वेदी ब्राह्मणों के साथ शिष्यों की तुलना की गयी है । किसी ने इन ब्राह्मणों को एक गाय दान में दी । वे चारों बारी-बारी से उसे दुहते | लेकिन हर कोई सोचता कि कल इसे दूसरा आदमी दुहेगा, फिर मैं इसे घास चारा क्यों दूं ? यह सोचकर चारों दूध दुहकर उसे छोड़ देते, और घास चारा न डालते । परिणाम यह हुआ कि उनकी लापरवाही से वह गाय मर गयी । उसके बाद दुबारा उन्हें किसी ने गाय दान में न दी। इसी प्रकार जो शिष्य अपने आचार्य की परिचर्या नहीं करते और उनके बीमार पड़ जाने पर उनकी परवा नहीं करते, वे श्रुतज्ञान से वंचित ही रहते हैं । अतएव शिष्यों को अपने आचार्य के प्रति श्रद्धा और भक्तिपूर्वक व्यवहार करना चाहिए ।
दूसरा उदाहरण गोशीर्ष चन्दन-निर्मित अशिवोपशमिनी भेरी का दिया गया है । यह भेरी कृष्ण के पास थी । इसका शब्द सुनने से छः महीने तक रोग नहीं होता था और यदि कोई पहले ही रोग से ग्रस्त हो तो उसका रोग शान्त हो जाता था । एकबार परदेश से कोई वणिक द्वारका आया | वह सिर की वेदना से अत्यन्त व्याकुल था । वैद्य ने उसे गोशीर्ष चन्दन का लेप बताया था, लेकिन गोशीर्ष चंदन बहुत प्रयत्न करने पर कहीं न मिला। अन्त में उसने बहुत-सा द्रव्य कृष्ण के भेरीपाल को देकर भेरी का एक खण्ड खरीद लिया । इस प्रकार जब उसे आवश्यकता होती, वह उसका खण्ड भेरीपाल से ले जाता । परिणाम यह हुआ कि भेरी खण्डित हो गयी, और उसका बजना बन्द हो गया, और प्रजा रोगी रहने लगी । जब कृष्ण को इसका पता लगा तो उसने भेरीपाल को बुलाकर उसके वंश का मूलोच्छेद कर दिया । इसी प्रकार सूत्रार्थ को खण्डित करनेवाले शिष्यों को कुशिष्य बताया गया है ।
कोई आभीरी अपनी गाड़ी में घी के घड़े भरकर अपने पति के साथ, उन्हें किसी नगर में बेचने चली। साथ में और भी आभीर थे; वे भी घी बेचने जा रहे थे । आभीरी का पति गाड़ी के ऊपर था और वह नीचे खड़ी हुई अपनी पत्नी को घो के घड़े पकड़ा रहा था । पति