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चौथा अध्याय
शिक्षा और विद्याभ्यास
ories और विद्यार्थी
भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति का उद्देश्य था चरित्र का संगठन, व्यक्तित्व का निर्माण, प्राचीन संस्कृति की रक्षा तथा सामाजिक और धार्मिक कर्त्तव्यों को सम्पन्न करने के लिए उदीयमान पीढ़ी का प्रशिक्षण |
अध्यापक बहुत आदर की दृष्टि से देखे जाते थे । जैनसूत्रों में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है: - कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य । कलाचार्य और शिल्पाचार्य के सम्बन्ध में कहा है कि उनका उपलेपन और संमर्दन करना चाहिए, उन्हें पुष्प समर्पित करने चाहिएँ, तथा स्नान कराने के पश्चात् उन्हें वस्त्राभूषणों से मंडित करना चाहिए। तत्पश्चात् भोजन आदि कराकर जीवन भर के लिए प्रीतिदान देना चाहिए, तथा पुत्र-पौत्र तक चलने वाली आजीविका का प्रबन्ध करना चाहिए । धर्माचार्य को देखकर उनका सम्मान करना चाहिए और उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था करनी चाहिये । यदि वे किसी दुर्भिक्ष वाले प्रदेश में रहते हों तो उन्हें सुभिक्ष देश में ले जाकर रखना चाहिए, कांतार में से उनका उद्धार करना चाहिए तथा दीर्घकालीन रोग से उन्हें मुक्त करने की चेष्टा करनी चाहिए। इसके साथ ही अध्यापकों में भी विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए पूर्ण योग्यता होनी चाहिए । जो प्रश्न विद्यार्थियों द्वारा पूछे जायें उनका अपना बड़प्पन प्रदर्शित किये बिना उत्तर देना चाहिए, तथा कभी असम्बद्ध उत्तर नहीं देना चाहिए ।"
१. अल्तेकर, एजूकेशन इन ऐशिएण्ट इण्डिया, पृ० ३२६ ।
२. राजप्रश्नीयसूत्र १९०, पृ० ३२८ ।
३. स्थानांग ३.१३५; तथा मनुस्मृति २.२२५ आदि ।
४. आवश्यकनिर्युक्ति १३६; तथा एच० आर० कापड़िया, द जैन सिस्टम
ऑव एजूकेशन, जर्नल ऑव युनिवर्सिटी ऑव बाम्बे, जनवरी, १९४०, पृ० २०६ आदि ।