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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड औपपातिक सूत्र में वैधव्य-जीवन के सम्बन्ध में उल्लेख है। कुछ ऐसी विधवाएँ थीं जिनके पति मर चुके थे, जो बाल्यावस्था से वैधव्य बिता रही थीं, जो परित्यक्ता थीं, अपने माता-पिता आदि द्वारा संरक्षित थीं, गन्ध और अलंकारों का परित्याग कर चुकी थी, तथा स्नान और दूध, दही, मधु, मद्य और मांस का सेवन जिन्होंने छोड़ दिया था । ये स्त्रियाँ आजीवन ब्रह्मचर्य धारण करतीं और विवाह का कभी नाम भी न लेती।' अनेक बाल-विधवाएँ (बालरंडा) संसार से संतप्त होकर श्रमणियों की दीक्षा स्वीकार कर लेती थीं। धनश्री और लक्षणावती आदि के नाम इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय हैं।
नियोग की प्रथा प्राचीन भारत में नियोग-प्रथा के उदाहरण मिलते हैं। इस प्रथा के अनुसार, पुत्रहीन विधवा, अपने पति की मृत्यु हो जाने पर, अपने देवर या अन्य किसी सगे-सम्बन्धी से पुत्र उत्पन्न करा लेती थी। आवश्यकचूर्णी में इस तरह का उल्लेख है, यद्यपि वह नियोग की श्रेणो के अन्तर्गत नहीं आता । कृतपुण्य राजगृह का निवासी था । वेश्यागामी होने के कारण वह निधन हो गया और वेश्या ने उसे अपने घर से निकाल दिया। इस बीच में उसके माता-पिता भी परलोक सिधार गये । एक दिन उसने किसी सार्थ के साथ व्यापार के लिए प्रस्थान किया । मार्ग में वह किसी देवकुलिका में सोया हुआ था। इसी समय किसी वणिक-पुत्र की माता ने सुना कि जहाज फट जाने के कारण, व्यापार के लिए गये हुए उसके पुत्र को मृत्यु हो गयी है। उसे भय था कि अपुत्र होने से कहीं उसकी धन-सम्पत्ति पर राजा का अधिकार न हो जाये, इसलिए घूमती-फिरती किसो आदमी की खोज में, वह
१. ३८, पृ० १६७; मनुस्मृति, ९.६५ । २. आवश्यकचूर्णी, पृ० ५२६ । ३. महानिशीथ, पृ० २४ ।।
४. मनुस्मृति ( ६.५९ आदि ) में उल्लेख है कि जिस व्यक्ति की नियोग के लिए नियुक्ति हो, उसे शरीर में मक्खन चुपड़कर सन्तान उत्पन्न करने के लिए किसी विधवा के पास पहुँचना चाहिए, तथा उसे चाहिए कि चुपचाप एक पुत्र उत्पन्न कर दे, दूसरा नहीं । फिर नियोग का प्रयोजन सिद्ध हो जाने के पश्चात् उन दोनों को पिता और पुत्रवधू के समान रहना चाहिए । तथा देखिए गौतम १८.४ आदि; अल्तेकर, वही, पृ० १६८-७६ ।