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૨૨૨ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड
कुल-आर्यों में उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु (ऋषभदेव के वंशज), ज्ञात ( नात, प्रथम प्रजापति के वंशज), और कौरव्य (महावीर और शांति जिन के पूर्वज ) का उल्लेख है। ___ कर्म- आर्यों में दोसिय (दौष्यिक = कपड़े के व्यापारी), सोत्तिय ( सौत्रिक = सूत के व्यापारी), कप्पासिय ( कासिक = कपास के व्यापारी), सुत्तवेयालिय (सूत के व्यापारी), भंडवेयालिय ( करियाने के व्यापारी), कोलालिय ( कुम्हार ), और णरवाहिणय ( पालकी उठाने वाले) का उल्लेख मिलता है।
शिल्प-आर्यों में तुन्नाग ( रफू करने वाले ), तन्तुवाय ( बनने वाले), पट्टागार (पटवे ), देयड ( मशक बनाने वाले), वरुड ( पिंछी बनाने वाले, अथवा रस्सा बँटने वाले ), छव्विय ( चटाई बुनने वाले), कट्ठपाउयार ( लकड़ो को पादुका बनाने वाले ), मुंजपाउयार ( मुंज की पादुका बनाने वाल), छत्तकार (छतरी बनाने वाले,) वज्झार (बाह्य कार = वाहन बनाने वाले ), पोत्थार ( मिट्टी के पुतले बनाने वाले ), लेप्पकार (पलस्तर को वस्तुएँ बनाने वाले ), चित्रकार, शंखकार, दंतकार, भांडकार ( कंसेरे ), जिज्झगार (?), सेल्लगार (भाला बनाने वाले ) और कोडिगार (कौड़ियों का काम करने वाले ) का उल्लेख मिलता है।
१. कल्पसूत्र २.२५ में कहा है कि अरहंत, चक्रवर्ती और बलदेव अन्त, पन्त, तुच्छ, दरिद्र, कृपण, भिक्षाक ( भीख माँगनेवाले ) और ब्राह्मण कुलों में उत्पन्न न होकर, उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, क्षत्रिय, हरिवंश आदि विशुद्ध कुलों में ही उत्पन्न होते हैं। उग्र, भोज, राजन्य, इक्ष्वाकु, हरिवंश, एसित्र ( गोष्ठ), वैश्य, गंडक ( घोषणा करनेवाला ), कोट्टाग ( बढ़ई ), ग्रामरक्षकुल और बोक्कसालिय ( तन्तुवाय) आदि के घर से भिक्षा ग्रहण करने का विधान है; तथा आवश्यकचूर्णी, पृ० २३६ ।
२. कर्म, बिना किसी प्राचार्य के उपदेश से किया जाता है, जब कि शिल्प में प्राचार्य के उपदेश को आवश्यकता होती है।
३. अनुयोगद्वारसूत्र, १३६-अ में तृणहारक, काष्ठहारक और पत्रहारक आदि को भी कर्म-श्रार्यों में गिनाया गया है। तथा देखिए मिलिन्दप्रश्न, पृ० ३३१ । ___४. रामायण (२,८३.१२ श्रादि) में मणिकार, कुम्भकार, सूत्रकर्मकृत् , शस्त्रोपजीवी, मायूरक, क्राकचिक, रोचक, दन्तकार, सुधाकार, गंधोपजीवी,