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पहला अध्याय सामाजिक संगठन
भारतीय सामाजिक सिद्धान्त के अनुसार, जीवन एक लम्बी यात्रा है जो मृत्यु के बाद भी अनन्त और अविचल रहती है । समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहता है,
द्यपि उसकी अभिरुचियाँ समाज की अभिरुचियों के विरुद्ध नहीं जातीं । किसी व्यक्ति विशेष द्वारा अपनाया हुआ मार्ग पृथक हो सकता है, लेकिन सबका उद्देश्य एक हो है - " अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख । "
वर्ण और जाति
वर्ण-व्यवस्था प्राचीन भारतीय समाज का मेरुदण्ड था ।
जैन सूत्रों में आर्य और अनार्य जातियों में भेद किया गया है । वैदिक साहित्य के अनुसार, दोनों जातियों में मुख्य शारीरिक भेद वर्ण का था । आर्य विजेता गौरवर्ण के थे, जब कि अनार्य उनके अधीन और कृष्णवर्ण के थे । '
जैन सूत्रों में आर्यों की पाँच जातियाँ बतायो गयी हैं :क्षेत्र- आर्य, जाति-आर्य, कुल-आर्य, कर्म-आर्य, भाषा आर्य और शिल्प- आर्य |
साढ़े पच्चीस आर्य-क्षेत्रों का उल्लेख आगे चलकर किया जायेगा । जाति-आर्यों में छह इभ्य जातियाँ बताई गई हैं :- अबष्ठ, ४ कलिन्द, विदेह, वेदग, हरित और चुंचुण ( अथवा तुन्तुण ) ।
१. सेनार्ट, कास्ट इन इण्डिया, पृ० १२२ श्रादि । जाति की उत्पत्ति के विविध सिद्धान्तों के लिए देखिये सेन्सस इण्डिया, १९३९, जिल्द १, भाग १, पृ० ४३३ आदि ।
२. प्रज्ञापना १ ६७-७१ ।
३. जाति में मातृपक्ष की और कुल में पितृपक्ष की प्रधानता बतायो है ।
४. और विदेह को नीची जातियों में भी गिना गया है ।