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________________ पहला अध्याय जैन संघ का इतिहास आदि तीर्थंकर जैन परम्परा में जैनधर्म को शाश्वत माना गया है, अतएव समयसमय पर जैनधर्म का लोप हो जाने पर भी वह कभी नाश नहीं होता । यहाँ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम के दो कल्प माने गये हैं 'जो सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा - दुषमा, दुषमा- सुषमा, दुषमा और दुषमा'दुषमा इन छः कालों में विभक्त हैं। सुषमा -दुषमा नाम के तीसरे काल में १५ कुलकरों का जन्म हुआ जिनमें नाभि कुलकर की महारानी मरुदेवी के गर्भ से आदि तीर्थंकर ऋषभदेव, वृषभदेव अथवा आदिनाथ उत्पन्न हुए । ' ऋषभदेव प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवलो, प्रथम तीर्थंकर, प्रथम धर्मचक्रवर्ती और नीति के प्रथम प्रकाशक कहे जाते - थे । उन्होंने सुमङ्गला और सुनन्दा नाम की अपनी बहनों से विवाह `किया ।' सुमङ्गला से भरत और ब्राह्मी तथा सुनन्दा से बाहुबलि और सुन्दरी का जन्म हुआ । राजसिंहासन पर बैठने के पश्चात् उन्होंने गणों की स्थापना की । ऋषभदेव ने ७२ कलाओं और स्त्रियों की ६४ कलाओं का उपदेश दिया, अग्नि जलाना सिखाया, 3 तथा भोजन बनाने, बर्तन तैयार करने, वस्त्र बुनने और बाल बनाने आदि की १. इनकी आयु ८४ हजार पूर्व और इनके शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष बतायी गयी है । २. शाक्यों में भी भगिनी - विवाह प्रचलित था। महावंस में उल्लेख है कि लाट देश के राजा सीहबाहु ने अपनी भगिनी को पट्टरानी बनाया। देखिये बी० सी० लाहा, वीमेन इन बुद्धिस्ट लिटरेचर । ऋग्वेद का यम यमी संवाद भी देखिये । ३. पहले लोग कन्दमूल फलों का भक्षण करते थे। लेकिन कालांतर में उनका पचना बन्द हो गया । ऋषभदेव ने उन्हें हाथ से मलकर और उनका छिलका उतार कर खाने का आदेश दिया, आवश्यकचूर्णी, पृ० १५४ ।
SR No.007281
Book TitleJain Agam Sahitya Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchadnra Jain
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1965
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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