________________
तृ० खण्ड] पहला अध्याय : उत्पादन
१३७ में माजरिक, पालक, जलपोपल, मूली, सरसों, जीवंतक, तुलसो, मरवा, शतपुष्प, इन्दीवर आदि का उल्लेख है । वंश, वेणु और कनक ये बाँस की तीन जातियाँ बतायी गयी हैं। सन (बाग), नारियल के तृण ( पयडो), मूंज, कुश, बेंत और बाँस से जैन साधुओं के छींके बनाये जाते थे।२
वृक्षों की लकड़ियाँ घर और यान-वाहन आदि बनाने के काम में आती थीं। उनसे साधुओं के दंड, यष्टि, अवलेखनिका (कीचड़ हटाने के लिये), देणू (बाँस) आदि तैयार किये जाते । वनकर्म और अंगारकर्म का उल्लेख मिलता है । वनकर्म में रत श्रमिक लोग जंगल के वृक्षों को गिराकर उनसे लकड़ी प्राप्त करते थे। अंगारकर्म द्वारा लड़कियों को जलाकर कोयले तैयार किये जाते थे; पक्की ईंटें बनायी जाती थीं। ___लकड़हारों (कट्ठहारक ), जंगल में से सूखे पत्ते चुननेवालों ( पत्तहारक ), और घसियारों (तणहारक) का उल्लेख मिलता है, जो जंगल में दिन भर लकड़ी काटते रहते, पत्ते चुगते रहते, और घास खोदते रहते थे।
_ आखेट - मांस के लिए आखेट किया जाता था। राजा अपने दलबल के साथ जंगल में मृगया के लिए जाते । कांपिल्य का राजा संजय अपने अश्व पर बैठकर, चतुरंगिणी सेना के साथ, केसर नाम के उद्यान में मृगया के लिए चला, और वहाँ पहुँचकर, भयभीत और संत्रस्त होकर इधर-उधर भागते हुए मृगों का शिकार करने लगा। व्याख्याप्रज्ञप्ति में मृगवध का उल्लेख है। मृगलुब्धिक पशुओं को पकड़कर उन्हें
१. प्रज्ञापनासूत्र १.२३ । . २. निशीथभाष्य १.६४० । ३. निशीथसूत्र १.४० ।
४. उपासकदशा १, पृ० ११; तथा व्यवहारभाष्य ३.८६ श्राचारांग २, २.३०३।
५. ज्ञातृधर्मकथा १३, पृ० १४३; बृहत्कल्पभाष्य १.१०६७; अनुयोगद्वारसूत्र १३० ।
६. उत्तराध्ययनसूत्र १८.२ आदि । ७. १.८।