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पहला अध्याय
उत्पादन — आर्थिक साधन, प्राचीन काल से संसार के इतिहास में मुख्यतया पथ-प्रदर्शन का जरिया रहा है। दुर्भाग्य से, आर्थिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन करानेवाली सामग्री बहुत अल्प है, अतएव प्राचीन भारत के निवासियों की दशा से सम्बन्धित प्रत्येक तथ्य का व्यवस्थित लेखाजोखा यहां प्रस्तुत करना असंभव है। फिर भी, आशा है कि जो थोड़ी-बहुत सामग्री एकत्रित की जा सकी है, वह उपयोगी सिद्ध होगी।
प्रत्येक कार्य जिससे धन-सम्पत्ति उत्पन्न होती है, उत्पादक कहा जाता है। भौतिक पदार्थों को प्रकृति ही पैदा करती है, मनुष्य तो एक परमाणु भी नहीं उत्पन्न कर सकता । वह केवल उनका रूप अथवा परिणाम बदल देता है जिससे उन पदार्थों की कीमत बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए, लोहा अथवा कोयले का मनुष्य उत्पादन नहीं करता, लेकिन शहरों में पहुँच जाने पर उनके मूल्य में वृद्धि हो जाती है।
भूमि भूमि, श्रम, पूजी तथा प्रबन्ध धन के उत्पादन में मुख्य कारण हैं, जिन्हें अर्थशास्त्र में उत्पादन के साधन कहा गया है ।
भारतवर्ष के गांवों की अर्थ-व्यवस्था, मुख्यतया गांवों में रहने वाले खेत के मालिक किसानों पर ही निर्भर रहती आयी है। सामान्यतया ग्रामीणजनों का पेशा खेतीबारी रहा है।
__ खेतीबारी : खेती करने के उपाय गांवों के चारों ओर खेत (खेत्त) या चरागाह होते थे, और ये वृक्षपंक्ति, वन, वनखंड, वनराजि और कानन से घिरे रहते थे। खेत को दस प्रकार के बाह्य परिग्रहों में गिना गया है:-क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, संचय (तृण, काष्ठ आदि का संग्रह), मित्र और सम्बन्धी, वाहन, शयन-आसन, दासो-दास और कुप्य (बर्तन ) । खेत को सेतु
१. बृहत्कल्पभाष्य १.८२५ ।-... --