SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ३५ ज्ञान भी प्रमाण होना चाहिए। यदि शब्द बाह्यार्थ में प्रमाण न हो तो बौद्ध स्वयं शब्दोंसे उन नदी, देश, पर्वत आदिका ज्ञान कैसे कर सकते हैं जो इन्द्रियोंसे दिखाई नहीं देते ? यदि कुछ अर्थकी गैरमौजूदी में प्रवृत्त होनेके कारण व्यभिचारी देखे जाते हैं तो इतने मात्र से सभी शब्दोंको व्यभिचारी या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । जिस प्रकार प्रत्यक्ष या अनुमान कहीं-कहीं भ्रान्त देखे जानेपर भी भान्त और अव्यभिचारी अवस्थामें प्रमाण होते हैं उसी तरह अभ्रान्त शब्दको बाह्यार्थ में प्रमाण मानना चाहिए । यदि हेतुवाद रूप शब्दसे अर्थका निश्चय न हो तो साधन और साधनाभासकी व्यवस्था कैसे होगी ? उसी तरह आप्तके वचनोंके द्वारा अर्थबोध न हो तो आप्त और अनाप्तका भेद कैसे ज्ञात हो सकता है ? शब्दों में सत्यार्थता और असत्यार्थताका निर्णय अर्थप्राप्ति और अप्राप्तिसे ही किया जा सकता है । यदि पुरुषोंके अभिप्राय में विचित्रता या विसंवाद होनेके कारण शब्द अर्थव्यभिचारी मान लिये जाँय तो बुद्ध सर्वज्ञता और सर्वशास्तृतामें कैसे विश्वास किया जा सकता है ? वहाँ भी अभिप्राय वैचित्र्यकी शंका हो सकती है। यदि कहींपर अर्थव्यभिचार देखे जानेके कारण शब्द अर्थ में प्रमाण नहीं है तो विवक्षाका व्यभिचार भी देखा जाता है अतः उसे विवक्षा में भी प्रमाण नहीं मानना चाहिए । किसीकी विवक्षा होती है और कोई शब्द मुँहसे निकल जाता है । कहींपर शिंशपा लताकी सम्भावना होनेपर भी जिस प्रकार सुविवेचित शिंशपात्व हेतु वृक्षका अविसंवादी है और ईंधनजन्य अग्निको कहींपर मणिसे उत्पन्न होनेपर भी जिस तरह सुविवेचित अग्नि ईंधनजन्य ही मानी जाती है उसी तरह सुविवेचित शब्द अर्थका व्यभिचारी नहीं हो सकता । व्यभिचारी शब्द उसी तरह शब्दाभासकी कोटिमें शामिल हैं जिस तरह व्यभिचारी प्रत्यक्ष प्रत्यक्षाभास में और व्यभिचारी अनुमान अनुमानाभास में । अतः अविसंवादी शब्दको अर्थ में प्रमाण मानना ही चाहिए। यदि शब्दमात्र विवक्षाके ही सूचक हों तो उनमें सत्यत्व और असत्यत्वकी विवक्षा नहीं हो सकेगी, क्योंकि दोनों प्रकारके शब्द अपनी विवक्षाका सूचन तो करते ही हैं । विवक्षाके बिना भी सुषुप्सादि अवस्था में शब्दप्रयोग देखा जाता है और शास्त्र व्याख्यानकी विवक्षा रहनेपर भी मंदबुद्धि शास्त्र व्याख्यान नहीं कर पाते अतः शब्दोंको विवक्षाजन्य नहीं माना जा सकता । तात्पर्य यह कि शब्दोंमें सत्यत्व और असत्यत्वका निर्णय करनेके लिए उन्हें अर्थका वाचक मानना ही चाहिए । शब्दका स्वरूप शब्द' पुद्गल स्कन्धकी पर्याय है जैसे कि छाया और आतप । कंठ तालु आदि भौतिक कारणों के अभिघातसे प्रथम शब्द वक्ता के मुखमें उत्पन्न होता है उसको निमित्त पाकर लोक में भरी हुई शब्द वर्ग - णाएँ (विशेष प्रकारके पुद्गल ) शब्दरूप से झनझना उठती हैं । जैसे किसी जलाशय में पत्थर फेंकने पर पहली लहर पत्थर और जलके अभिघातसे उत्पन्न होती है और आगेकी लहरें उस प्रथम लहरसे उत्पन्न होती हैं । उसी तरह वीचि तरङ्ग - न्यायसे शब्द की उत्पत्ति और प्रसार होता है। आजका विज्ञान भी यही मानता है कि वातावरण में ( ईथर में ) प्रत्येक शब्द अमुककाल तक अपनी सूक्ष्मसत्ता रखता है । जहाँ उसको ग्रहण करनेवाले ग्राहक यन्त्र ( Receiver ) मौजूद हैं, वहाँ वे उसके द्वारा गृहीत हो जाते हैं । शब्द रिकार्डों में भरे जाते हैं इसका अर्थ है कि यन्त्रविशेषके द्वारा उत्पन्न शब्द विशेषप्रकारके पुद्गल रिकार्ड की ऐसी सूक्ष्म शब्द रूप पर्याय उत्पन्न कर देता है कि वह अमुक कालतक सुईके संपर्क से उसी प्रकारके शब्दको उत्पन्न करती रहती है । मीमांसक शब्दको नित्य मानते हैं, उसका प्रधान कारण है वेदको नित्य और अपौरुषेय मानना । यदि शब्द नित्य और व्यापक हो तो व्यंजक वायुसे एक जगह उसकी अभिव्यक्ति होनेपर सभी जगह सभी वर्णोंकी अभिव्यक्ति होनेसे कोलाहल मच जाना चाहिए । संकेतके लिए भी शब्दको नित्य मानना आवश्यक नहीं है । अनित्य होनेपर भी सदृश शब्दसे संकेतानुसार व्यवहार चल जाता है । “यह वही शब्द है" यह प्रत्यभिज्ञान शब्दकी नित्यताके कारण नहीं होता किन्तु १ “शब्दः पुद्गलपर्यायः स्कन्धः छायातपादिवत् " - सिद्धिवि० लि० पृ० ४६३ ।
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy