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न्यायविनिश्चयविवरण
विसंवाद दूर कर मानसिक समताकी सृष्टि कर अनेकान्त दृष्टिके रूपमें विकसित होती है और यही वचनोंका ऐकान्तिक विष चूसकर उन्हें स्याद्वादामृतरूप बनाती है। यही समस्त प्राणियोंके समानाधिकारको सिद्धान्ततः स्वीकार करके परिग्रह संग्रहके प्रति उदासीन हो सबको जीनेका-फूलने फलनेका अवसर देती है। शब्दका अर्थवाचकत्व
बौद्ध' शब्दको वास्तविक अर्थका वाचक नहीं मानते। उनके मतसे क्षणिक, निरंशपरमाणुरूप स्वलक्षण ही परमार्थ है। उसकी न तो कालान्तरमें व्याप्ति है और न देशान्तर तक प्रसार ही। जो जहाँ
और जब उत्पन्न होता है वह वहीं और तभी नष्ट हो जाता है। शब्दकी प्रवृत्ति संकेतसे होती है। जब स्वलक्षणोंका क्षणक्षयी और अनन्त होनेसे ग्रहण ही सम्भव नहीं है तब उनमें संकेत कैसे किया जा सकता है ? संकेतका ग्रहण भी हो जाय पर जब व्यवहारकाल तक उनकी अनुवृत्ति नहीं होती तब उस संकेतके बलपर शब्दार्थबोध और व्यवहार कैसे चल सकता है ? शब्दीका प्रयोग तो अतीत और अनागत अर्थों में भी देखा जाता है पर अतीत और अनागत नष्ट और अनुत्पन्न होनेके कारण विद्यमान तो नहीं हैं। यदि शब्दका अर्थके साथ सम्बन्ध हो तो शब्दबुद्धिका इन्द्रियबुद्धिकी तरह स्पष्ट प्रतिभास होना . चाहिए । शब्दबुद्धिमें अर्थ कारण भी नहीं होता अतः वह उसका विषय नहीं बन सकता क्योंकि जो ज्ञानमें कारण नहीं होता वह ज्ञानका विषय भी नहीं होता। यदि शब्दज्ञानमें अर्थ कारण हो, तो कोई भी शब्द विसंवादी या अप्रमाण नहीं होगा और अतीत तथा अनागतवाची शब्दोंकी प्रवृत्ति ही रुक जायगी। शब्द और अर्थ दोनोंका एक ज्ञानसे ग्रहण होनेपर ही "यह उसका वाचक है या वाच्य" इस प्रकारका संकेत बन सकता है किन्तु जिस चाक्षुषज्ञानसे हम अर्थको जानते हैं वह शब्दको नहीं जानता और जिस श्रावण प्रत्यक्षसे शब्दको जानते हैं वह अर्थको नहीं जानता। अतः शब्द अर्थका वाचक न होकर केवल विवक्षाका सूचन करता है । वह बुद्धि प्रतिबिम्बित अन्यापोहरूप सामान्यको ही कहता है, अतः शब्दसे होनेवाले ज्ञानमें सत्यार्थताका कोई नियम नहीं है।
___अकलङ्कदेवने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि पदार्थ में कुछ धर्म सदृश होते हैं और कुछ विसदृश । संकेत इन्हीं सदृश धर्मोकी अपेक्षा गृहीत होता है। जिस शब्दमें संकेत ग्रहण किया जाता है वह भले ही व्यवहारकाल तक न पहुँचे पर तत्सदृश दूसरे शब्दसे संकेतका स्मरणकर अर्थप्रतीति होनेमें क्या बाधा है ? एक घट शब्दका एक घट अर्थ में संकेत ग्रहण करनेके बाद तत्सदृश यावत् घटों में तत्सदृश यावत् घट शब्दोंकी प्रवृत्ति होती है। केवल सामान्यमें तो संकेत ही नहीं हो सकता क्योंकि वह अकेला प्रतिभासित ही नहीं होता और उसमें संकेत ग्रहण करनेपर विशेषों में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। इसी तरह केवल विशेषमें भी संकेत गृहीत नहीं होता क्योंकि अनन्त विशेष हम तुम जैसे पामर जनोंके ज्ञानके विषय नहीं हो सकते । अतः सामान्यविशेषात्मक पदार्थ में सामान्यविशेषात्मक ही शब्दका संकेत गृहीत होता है और उसके स्मरणसे अर्थबोध और व्यवहार चलता है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष बुद्धि अतीतार्थको जानकर भी प्रमाण है उसी तरह स्मृति भी प्रमाण होनी चाहिए। अविसंवादी स्मरणसे शब्दार्थके संकेतको ताजाकर शब्दव्यवहार चलानेमें कोई बाधा नहीं है। यह अवश्य है कि सामान्यविशेषात्मक अर्थको विषय करनेपर भी इन्द्रियबुद्धि स्पष्ट होती है और शब्दज्ञान अस्पष्ट । जैसे एक ही वृक्षको विषय करनेवाले दूरवर्ती और समीपवर्ती पुरुषोंके ज्ञान अस्पष्ट और स्पष्ट होते हैं उसी तरह एक ही अर्थ में इन्द्रियज्ञान और शब्दज्ञान स्पष्ट और अस्पष्ट हो सकते हैं। ज्ञानमें स्पष्टता या अस्पष्टता विषयभेदके कारण नहीं होती, वह तो क्षयोपशम या शक्ति-भेदसे होती है।
जिस प्रकार अविनाभाव सम्बन्धसे अर्थका बोध करानेवाला अनुमान अस्पष्ट होकर भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण है उसी तरह वाच्यवाचकसम्बन्धका स्मरणकर अर्थबोध करानेवाला शब्द
१ प्र० वा० ३।२१२ । २ न्यायवि० २।२१०-२१४ ।