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न्यायविनिश्चवविवरण प्रश्न-सर्वज्ञके साधक और बाधक दोनों प्रकारके प्रमाण नहीं मिलते अतः उसकी सत्तामें सन्देह होना चाहिए ?
उत्तर-जब साधक प्रमाण बता दिये गये हैं और बाधकोंका निराकरण भी किया जा चुका है तब सन्देहकी बात बेबुनियाद है। सर्वज्ञका अभाव तो बिना सर्वज्ञ बने नहीं किया जा सकता । जबतक हम त्रिकाल त्रिलोकवर्ती समस्त पुरुषोंकी असर्वज्ञके रूपमें जानकारी नहीं कर लेते तबतक जगत्को सर्वज्ञशुन्य कैसे कह सकते हैं और यदि ऐसी जानकारी किसी व्यक्तिको सम्भव है तो वही सर्वज्ञ होगा। सर्वज्ञताका इतिहास___ सर्वज्ञताके विकासका एक अपना इतिहास भी है। भारतवर्षकी परम्पराके अनुसार सर्वज्ञताका सम्बन्ध भी मोक्षसे था। मुमुक्षुओंके विचारका मुख्य विषय यह था कि मोक्षके उपाय, मोक्षका आधार, संसार और उसके कारणोंका साक्षात्कार हो सकता है या नहीं। विशेषतः मोक्ष प्राप्तिके उपायोंका अर्थात् उन धर्मानुष्टानोंका जिनसे आरमा बन्धनोंसे मुक्त होता है, किसीने स्वयं अनुभव करके उपदेश दिया है या नहीं? वैदिक परम्पराके एक भागका इस सम्बन्धमें विचार है कि-धर्मका साक्षात्कार किसी व्यक्तिको नहीं हो सकता, चाहे वह ब्रह्मा, विष्णु या महेश्वर जैसा महान् भी क्यों न हो? धर्म तो केवल अपौरुषेय वेदसे ही जाना जा सकता है। वेदका धर्ममें निर्बाध और अन्तिम अधिकार है। उसमें जो लिखा है वही धर्म है। मनुष्य प्रायः रागादि दुषांसे दषित होते हैं और अल्पज्ञ भी। यह सम्भव ही नहीं है कि कोई भी मनुष्य कभी भी सम्पूर्ण निर्दोष या सर्वज्ञ बनकर धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थोंका साक्षात्कार कर सके। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर आदि महादेवों में केवल इसलिए सर्वज्ञता बताई जाती है कि वे वेददेह हैं अर्थात् उनका शरीर या स्वरूप वेदमय है। इसका तात्पर्य यह है कि अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान केवल वेदके द्वारा ही सम्भव है, प्रत्यक्षसे नहीं। इस परम्पराका समर्थन जैमिनि और उनके अनुयायी शवर, कुमारिल आदि मीमांसकधुरीणोंने किया है। कुमारिलने तो सर्वज्ञताके निषेधका फलितार्थ निकालते हुए बहुत स्पष्ट लिखा है कि
"धर्मशत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रापि युज्यते। सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥"
-तत्वसंग्रह 'पूर्वपक्ष' पृ० ८४४ "यदि षड्भिः प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वशो येन कल्प्यते ॥ नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन् प्रतिपद्यते।"
-मीमांसाइलोकवार्तिक चोदनासूत्र श्लोक ११०-१२ अर्थात् सर्वज्ञताके निषेधका अर्थ है धर्मज्ञत्वका निषेध । यानी कोई भी पुरुष धर्मको प्रत्यक्षसे जानकर सर्वज्ञ नहीं बन सकता । धर्मके सिवाय अन्य सभी पदार्थोंका ज्ञान वह करना चाहता है तो करे हमें कोई आपत्ति नहीं । इसी तरह धर्मको वेदके द्वारा तथा अन्य पदार्थों को प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव आदि प्रमाणोंसे यथायोग्य जानकर कोई यदि औसतन सर्वज्ञ बनता है तब भी हमें कोई आपत्ति नहीं। पर एक प्रत्यक्ष प्रमाणके द्वारा जो सर्वज्ञ बनकर धर्मको भी जानना चाहता है वह उसी प्रकार है जो केवल एक आँखके द्वारा ही रस, गन्ध आदिका ज्ञान करना चाहता है।
इसी परम्पराके नैयायिक वैशेषिक भादि ईश्वरमें नित्य सर्वज्ञता और अन्य योगियों में योगज सर्वज्ञता मानकर भी वेदोंको ईश्वरप्रतिपादित या उसका निश्वास कहकर धर्ममें वेदका ही अन्तिम अधिकार स्वीकार करते हैं। व्यवहारमें वेदकी सर्वश्रेष्ठता दोनोंको मान्य है। सांख्य और योग परम्परामें सर्वज्ञता अणिमादि ऋद्धियोंकी तरह एक योगजन्य विभूति है, जो सभी योगियोंको अवश्य प्राप्तव्य नहीं है। जिनकी साधना इस योग्य हो उन्हें प्राप्त हो सकेगी । सर्वज्ञता प्रकृतिसंसर्ग चरितार्थ हो जानेपर मुक्त पुरुषों में अवशिष्ट नहीं रहती। वेदान्ती सर्वज्ञताको अन्तःकरणनिष्ठ मानते हैं। जो जीक