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________________ प्रस्तावना प्रश्न-वक्तृत्वका सम्बन्ध विवक्षासे है। अतः इच्छारहित निर्मोही सर्वज्ञमें वचनोंकी सम्भावना कैसे है? शब्दोच्चारणकी इच्छा-विवक्षा भी मोहकी ही पर्याय है। ___उत्तर-विवक्षाका वक्तृत्वसे कोई अविनाभाव नहीं है। मन्दबुद्धि शास्त्र-विवक्षा रखते हैं पर वे शास्त्रका व्याख्यान नहीं कर सकते । सुषुप्त, मूञ्छित आदि अवस्थाओंमें विवक्षा न रहनेपर भी वचनोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः विवक्षा और वचनमें कोई अविनाभाव नहीं है। चैतन्य और इन्द्रियोंकी पटुता ही वचन-प्रवृत्तिमें कारण होती है, इनका सर्वज्ञताके साथ कोई विरोध नहीं है। अथवा वचनों में विवक्षाको कारण मान भी लिया जाय पर सत्य और हितकारक वचनोंकी प्रवृत्ति करानेवाली विवक्षा दोषवाली कैसे हो सकती है ? इसी तरह निर्दोष पुरुषत्वका सर्वज्ञताके साथ कोई विरोध नहीं है-पुरुष भी हो और सर्वज्ञ भी। यदि इस प्रकारके व्यभिचारी हेतुसे साध्यकी सिद्धि की जाय तो इन्हीं हेतुओंसे जैमिनिमें वेदार्थज्ञताका भी अभाव सिद्ध हो जायगा। प्रश्न-हमें किसी प्रमाणसे सर्वज्ञ उपलब्ध नहीं होता, अतः अनुपलम्भ होनेसे उसका अभाव ही मानना चाहिए? उत्तर-पूर्वोक्त अनुमानोंसे जब सर्वज्ञकी सिद्धि हो जाती है तब अनुपलम्भ नहीं कहा जा सकता। अनुपलम्भ आपको है, या संसारके सब जीवोंको ? 'हमारे चित्तमें इस समय क्या विचार हैं। इसका अनुपलम्भ आपको है पर इससे हमारे चित्तके विचारोंका अभाव नहीं किया जा सकता। अतः यह स्वोपलम्भ अनैकान्तिक है । 'सबको सर्वज्ञका अनुपलम्भ है' यह बात तो सर्वज्ञ ही जान सकता है, असर्वज्ञ नहीं। प्रश्न-आगममें कहे गये साधनोंका अनुष्ठान करके सर्वज्ञता प्राप्त होती है और सर्वज्ञके द्वारा आगम कहा जाता है, अतः सर्वज्ञ और आगम दोनों अन्योन्याश्रित हैं ? उत्तर-सर्वज्ञ आगमका कारक है। प्रकृत सर्वज्ञका ज्ञान पूर्वसर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित आगमार्थके आचरणसे उत्पन्न होता है और पूर्वसर्वज्ञको तत्पूर्व सर्वज्ञके द्वारा प्रणीत आगमसे सर्वज्ञता प्राप्त होती है। इस तरह पूर्व-पूर्व सर्वज्ञ और आगमोंकी श्रृंखला बीजांकुर सन्ततिकी तरह अनादि है और अनादिपरम्परामें अन्योन्याश्रित दोषका विचार नहीं होता। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या आगम सर्वज्ञके बिना हो सकता है ? और पुरुष सर्वज्ञ हो सकता है या नहीं ? दोनोंका उत्तर यह है कि सर्वज्ञ हो सकता है और आगम सर्वज्ञ प्रतिपादित ही है। प्रश्न-जब आजकल प्रायः पुरुष रागी द्वेषी और अज्ञानी देखे जाते हैं तब अतीत या भविष्य में किसी पूर्णवीतरागी या सर्वज्ञकी सम्भावना कैसे की जा सकती है ? क्योंकि पुरुषकी शक्तियोंकी सीमाका वर्तमानकी तरह अतीत और अनागतमें उल्लंघन नहीं हो सकता ? उत्तर-यदि हम पुरुषातिशयको नहीं जान सकते तो उसका अभाव नहीं किया जा सकता। अन्यथा आजकल कोई वेदका पूर्णज्ञ नहीं देखा जाता तो 'अतीत कालमें जैमिनिको भी उसका यथार्थ ज्ञान नहीं था' यह कहना होगा। बुद्धिमें तारतम्य होनेसे उसमें परम प्रकर्षकी सम्भावनामें ही सर्वज्ञताकी सत्ता निहित है। जिस प्रकार अग्निके तापसे सोनेका मैल क्रमशः दूर हो जाता है और सोना पूर्ण निर्मल बन जाता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादिके अभ्याससे ज्ञान भी अत्यन्त निर्मल होकर सर्वज्ञताकी अवस्थामें पहुँच जाता है ? प्रश्न-सर्वज्ञ जब रागी आत्माके रागका या दुःखीके दुःखका साक्षात्कार करता है तब वह स्वयं रागी और दुःखी हो जायगा ? उत्तर-दुःख या रागको जान लेनेमात्रसे कोई दुःखी या रागी नहीं होता । राग तो आत्माका स्वयं राग रूप परिणमन करनेपर ही सम्भव है। क्या कोई श्रोत्रिय ब्राह्मण मदिराके रसका ज्ञान करने मात्रसे मद्यपायी कहा जा सकता है ? रागके कारण मोहनीय आदि कर्म सर्वज्ञसे अत्यन्त उच्छिन्न हो गये है. अतः परके राग या दुःखको जानने मात्र से उनमें राग या दुःख परिणति नहीं हो सकती।
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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