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प्रस्तावना
कर सका, न तो सत्यकी दृष्टि से उचित है और न अहिंसाकी दृष्टिसे न्याय्य है। अतः वादीके लिए असाधनाङ्ग वचन और प्रतिवादीके लिए अदोषोभावन ये दो ही निग्रह स्थान मानने चाहिए। वादीका कर्तव्य है कि वह निर्दोष और पूर्णसाधन बोले । इसी तरह प्रतिवादीका कार्य है कि वह यथार्थ दोषोंका उदभावन करे। यदि वादी निर्दोष साधन नहीं बोलता या जो साधनके अङ्ग नहीं हैं ऐसे वचन कहता है तो असाधनाङ्ग वचन होनेसे पराजय होना चाहिए। प्रतिवादी यदि यथार्थ दोषोंका उद्भावन न कर सके या जो दोष नहीं है उसका दोषरूपमें उद्भावन करे तो उसका पराजय होना चाहिए। इस तरह धर्मकीर्तिने सामान्यतया न्याय्य व्यवस्थाका समर्थन करनेपर भी उसके विविध व्याख्यानों में अपनेको उसी नियमोंके घपलेमें डाल दिया। उन्होंने असाधनाङ्ग वचनके विविध व्याख्यान करते हुए लिखा है कि अन्वय या व्यतिरेक दृष्टान्तमेंसे केवल एक दृष्टान्तसे ही जब साध्यकी सिद्धि सम्भव है तो दोनों दृष्टान्तोंका प्रयोग करना असाधनाङ्ग वचन होगा । त्रिरूपवचन ही साधनाङ्ग हैं, उनमेंसे किसी एकका कथन न कर सकना असाधनाङ्ग वचन होगा। प्रतिज्ञा, निगमन आदि जो साधनके अङ्ग नहीं है उनका कथन असाधनाङ्ग है। इसी तरह जो दूषण नहीं है उन्हें दूषणके रूपमें उपस्थित करना या जो दूषण हैं उनका उद्भावन नहीं कर सकना अदोषोद्भावन है। यह सब लिखकर भी अन्तमें उनने यह भी सूचित किया है कि जयलाभके लिए स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष निराकरण आवश्यक है।
अकलकदेव इस असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावनके झगड़ेको भी पसन्द नहीं करते । किसको साधनाङ्ग माना जाय किसको नहीं, किसको दोष माना जाय किसको नहीं यह निर्णय स्वयं एक शास्त्रार्थका विषय हो जाता है। अतः स्वपक्षसिद्धिसे ही जयव्यवस्था और पर पक्षका निराकरण होनेसे पराजय माननी चाहिए। निर्दोष साधन बोलकर स्वपक्षसिद्धि करनेवाला वादी यदि कुछ अधिक बोल जाता है या कम बोलता है या किसी साधारण नियमका पालन नहीं कर पाता है तो भी उस नहीं होना चाहिए । प्रतिवादी यदि सीधा विरुद्ध हेत्वाभासका उसावन करता है तो फिर उसे स्वतन्त्र भावसे स्वपक्षसिद्धि करनेकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वादीके पक्षको विरुद्ध कहनेसे प्रतिवादीका पक्ष स्वतः सिद्ध हो जाता है। असिद्ध आदि हेत्वाभासोंके उदभावन करनेपर प्रतिवादीको स्वपक्ष सिद्धि भी करनी चाहिए। तात्पर्य यह कि शास्त्रार्थ के नियमोंके अनुसार चलनेपर भी वादी या प्रतिवादी स्वपक्ष सिद्धि के बिना जयलाभ नहीं कर सकते।
वाद या शास्त्रार्थ के चार अङ्ग होते हैं-सभापति, सभ्य, वादी और प्रतिवादी । सभ्योंको प्राश्निक भी कहते हैं। इन्हें अधिकार होता है कि पक्षपातमें न पड़कर वादी या प्रतिवादी किसीसे भी प्रश्न करें । इनका काम है कि ये असद्वादका निषेध करें और लगामकी तरह वादी या प्रतिवादीको इंधर उधर न जाने देकर ठीक रास्तेपर रखें। सभापति तो समस्त वाद-व्यवस्थाका पूर्ण नियामक होता है। वादी और प्रतिवादीके बिना तो शास्त्रार्थ ही नहीं चल सकता।
___जाति-मिथ्या उत्तरोंको जाति कहते हैं। जैसे धर्मकीर्तिका अनेकान्तके रहस्यको न समझकर यह कहना कि “जब सभी उभयात्मक हैं तो दही भी ऊँट रूप होगा, ऐसी हालतमें दही खानेवाला ऊँटको क्यों नहीं खाता?" अनेकान्त सिद्धान्तमें सबको सर्वधर्मात्मक सिद्ध नहीं किया जाता किन्तु प्रत्येक वस्तु में उसके सम्भव अनेक धर्मोको बताया जाता है। दही जड पदार्थ है और ऊँट चेतन । दही खानेवाला दही . पर्यायवाले पदार्थको खाना चाहता है न कि सद्रूपसे वर्तमान किसी भी पदार्थ को, अतः सद्रूपसे ऊँट और दहीको एक मानकर दूषण देनेमें तो समस्त संसारकी गम्यागम्य, खाद्याखाद्य, पूज्यापूज्य व्यवस्थाओंका लोप हो जायगा। 'अकलङ्कदेव नैयायिकके द्वारा कही गई साधर्म्यसम वैधय॑सम आदि २४ जातियोंको न तो कोई खास महत्त्व देते हैं और न उनकी आवश्यकता ही समझते हैं। असदुत्तर ती असंख्य प्रकारके हो सकते हैं, अतः जातियोंकी २४ संख्या भी अपूर्ण ही है।
१ न्यायवि० २।२०९ । २ न्यायवि० २।२०३ । ३ न्यायवि० २।२०७ ।