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न्यायविनिश्चयविवरण
खण्डन करता है तब वह वितण्डा बन जाता है। बादमें स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण प्रमाण और तर्कसे किये जाते हैं जबकि जल्प और वितण्डामें प्रमाण और तर्कके सिवाय छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे असद् उपायोंका भी आलम्बन लिया जाता है। न्यायसूत्रकारने लिखा है कि जैसे खेतकी रक्षाके लिए काँटोंकी बारी लगाई जाती है उसी तरह तत्वाध्यवसायके संरक्षणके लिए जल्प और वितण्डाका भी स्थान है। काँटोंकी बारीमें जिस प्रकार अच्छे-बुरे वृक्षका विचार न करके खेत संरक्षण ही एक मुख्य उद्देश्य रहता है उसी तरह जल्प और वितण्डामें छल जाति आदि असद् उपायोंके आलम्बनमें कोई हानि नहीं समझी जाती । नैयायिक इन छलादिके प्रयोगोंको असदुत्तर मानकर भी अवस्था विशेषमें इनके प्रयोगको न्याय्य मान लेता है और साधारण अवस्थामें उनके प्रयोगका निषेध भी करता है। वादमें अपसिद्धान्त, न्यून, अधिक और हेत्वाभास इन निग्रहस्थानोंका प्रयोग नैयायिकको स्वीकृत है पर वह वादमें इनके प्रयोगको निग्रहबुद्धिसे नहीं करना चाहता किन्तु तस्वनिर्णयकी बुद्धिसे ही करता है। बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति छलादिके प्रयोगको वादमें उचित नहीं मानते। उन्होंने वादन्यायका प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि धूर्त लोग सद्वादीको भी असदुत्तरोंसे चुप कर देते हैं, उनके निराकरणके लिए यह वादन्याय शुरू किया जाता है।
__अकलङ्कदेव छलादि असदुत्तरोंको सर्वथा अन्याय्य बताकर संक्षेपमें समर्थवचनको वाद कहते हैं। वादी और प्रतिवादियोंका मध्यस्थके समक्ष स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण करना वाद है। छलादिके प्रयोगको अन्याय्य मान लेनेके बाद जल्प और वादमें कोई अन्तर नहीं रह जाता। इसीलिए वे यथेच्छ' कहीं जल्प और कहीं' वाद शब्दका प्रयोग करते हैं। उनने वितण्डाको जिसमें वादी अपने पक्षका स्थापन न करके मात्र परपक्षका निराकरण ही निराकरण करता है वादाभास कहा है. यह सर्वथा त्याज्य है।
जय-पराजय व्यवस्था-स्वपक्ष सिद्धिको जय कहते हैं। वादीका कर्तव्य है कि वह साधनका प्रयोग करके स्वपक्षका साधन करे तथा प्रतिवादीके द्वारा दिये गये दूषणका उद्धार करे। इसी तरह प्रतिवादीका कर्त्तव्य है कि वह वादीके पक्षको दृषित बताकर स्वपक्षका साधन करे। जब वादी या प्रतिवादी अपने इन कर्त्तव्योंमें चूकते हैं तो उनकी पराजय होती है। नैयायिकने इसके लिए कुछ नियम बनाये हैं जिन्हें वह निग्रहस्थान शब्दसे कहता है। सामान्यतया निग्रहस्थान विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्तिके भेदसे दो प्रकारका है। विपत्तिपत्ति अर्थात विरुद्ध या कुत्सित प्रतिपत्ति । अप्रतिपत्ति अर्थात् प्रतिपत्तिका अभाव-जो करना चाहिए वह नहीं करना तथा जो न करना चाहिए वह करना । निग्रहअर्थात् पराजय । ये पराजयके स्थान प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, आदिके भेदसे २२ प्रकारके हैं। इनमें बताया है कि यदि कोई वादी प्रतिज्ञाकी हानि करे, दूसरी प्रतिज्ञा करे या प्रतिज्ञाको छोड़ बैठे, एक हेतुके दूषित होनेपर उसमें कोई विशेषण जोड़ दे, असम्बद्ध पद वाक्य या वर्ण बोले, इस तरह बोले जिससे तीन बार कहनेपर भी प्रतिवादी या परिषद् समझ न सके, हेतु दृष्टान्त आदिका क्रम भङ्ग हो जाय, अवयव न्यून कहे जाय या अधिक कहे जाय, पुनरुक्ति हो. वादीके द्वारा कहे गये पक्षका प्रतिवादी अनुवाद न कर सके, उसका उत्तर न दे सके, वादीके द्वारा दिये गये दूषणको अर्द्ध स्वीकार करके खण्डन करे, निग्रहके योग्यको कौन-सा निग्रह-स्थान होता है यह न बता सके, अनिग्रहाई-जो निग्रहके योग्य नहीं है उसे निग्रहस्थान बतावे. सिद्धान्त विरुद्ध बोले. पाँच हेत्वाभासों से किसी एक हेत्वाभासका प्रयोग करे तो निग्रह-स्थान अर्थात् पराजय होगी।
आचार्य धर्मकीर्तिने अपने वादन्याय (पृ. ७५-) में इनका खण्डन करते हुए लिखा है कि जयपराजयकी व्यवस्थाको इस तरह गुटालेमें नहीं रखा जा सकता। किसी भी सच्चे साधनवादीका मात्र इसलिए पराजय हो जाय कि वह कुछ अधिक बोल गया, या कम बोला, या उसने अमुक नियमका पालन नहीं
१ न्यायसू० ४।२।५०। २ वादन्याय पृ० १। ३ सिद्धिवि० ५।२। ४ न्यायवि० २।२१३ । ५ न्यायवि० २।२१५ । ६ न्यायसू० १।२।१९ और ५।२।।