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प्रस्तावना
६१ 'परिवादिमल्ल जिनालय' नाम का मन्दिर निर्माण कराया और उसके पूजन तथा मुनियों के आहार दान के लिये कुछ भूमिका दान किया ।
इन सब बातों से साफ समझ में आता है कि वादिराज की गुरुशिष्यपरम्परा मठाधीशों की परउपरा थी, जिसमें दान लिया भी जाता था और दिया भी जाता था। वे स्वयं जैनमन्दिर बनवाते थे, उनका जीर्णोद्वार कराते थे और अन्य मुनियों के आहार दान की भी व्यवस्था करते थे। उनका 'भव्यमहाय' विशेषण भी इसी दानरूप सहायता की ओर संकेत करता है। इसके सिवाय वे राजाओं के दरबारों में उपस्थित होते थे और वहाँ वाद-विवाद करके वादियों पर विजय प्राप्त करते थे।
देवसेनसूरि के दर्शनसार के अनुसार द्राविडसंघ के मुनि कच्छ, खेत, बसति (मंदिर) और वाणिज्य करके जीविका करते थे और शीतल जल से स्नान करते थे । मन्दिर बनाने की बात तो ऊपर आ चुकी रही खेती-बारी, सो जब जागीरी थी तब वह होती ही होगी और आनुषङ्गिक रूप से वाणिज्य भी इस लिये शायद दर्शनसार में द्राविडसंघ को जैनाभास कहा गया है।
कुष्ठ रोग की कथा - वादिराजसूरि के विषय में एक चमत्कारिणी कथा प्रचलित है कि उन्हें कुष्ठरोग हो गया था। एक बार राजा के दरबार में इसकी चर्चा हुई तो उनके एक अनन्य भक्त ने अपने गुरु के अपवाद के भय से झूठ ही कह दिया कि 'उन्हें कोई रोग नहीं है।' इसपर बहस छिड़ गई और आखिर राजा ने कहा कि 'मैं स्वयं इसकी जाँच करूँगा। भक्त घबड़ाया हुआ गुरुजी के पास गया और बोला 'मेरी लाज अब आपके ही हाथ है, मैं तो कह आया । इसपर गुरुजी ने दिलासा दी और कहा, 'धर्म के प्रसाद से सब ठीक होगा, चिन्ता मत करो। इसके बाद उन्होंने एकीभावस्तोत्र की रचना की और उसके प्रभाव से उनका कुष्ठ दूर हो गया ।
एकीभाव की चन्द्रकीर्ति भट्टारककृत संस्कृत टीका में यह पूरी कथा तो नहीं दी है परन्तु श्लोक की टीका करते हुए लिखा है कि "मेरे अन्तःकरण में जब आप प्रतिष्ठित हैं तब मेरा यह कुष्ठरोगाकान्त शरीर यदि सुवर्ण हो जाय तो क्या अर्थात् चन्द्रकीलिंगी कथा से परिचित थे परन्तु जहाँ तक हम जानते हैं यह कथा बहुत पुरानी नहीं है और उन लोगों द्वारा गढ़ी गई है जो ऐसे चमत्कारों से ही आचार्यों और भट्टारकों की प्रतिष्ठा का माप किया करते थे। अमावस के दिन पूनो के चन्द्रमा का उदय कर देना चवालीस या अड़तालीस वेदियों को तोड़कर कंद में से बाहर निकल आना, साँप के काटे हुए पुत्र का जीवित हो जाना आदि, इस तरह की और भी अनेक चमत्कारपूर्ण कथायें पिछले भट्टारकों की गढ़ी हुई प्रच लित हैं जो असंभव और अप्राकृतिक तो हैं ही, जैन मुनियों के चरित्र को और उनके वास्तविक महत्व की भी नीचे गिराती है।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि सच्चे मुनि अपने भक्त के भी मिष्याभाषण का समर्थन नहीं करते और न अपने रोग को छुपाने की कोशिश करते हैं। यदि यह घटना सत्य होती तो महल जिनमें वादिराजसूरि की बेहद प्रशंसा की गई है, तक इस कथा का आविर्भाव ही न हुआ था ।
इसके सिवाय एकीभाव के जिस पीछे पथ का आश्रय लेकर यह कथा गड़ी गई है, उसमें ऐसी कोई बात ही नहीं है जिससे उक्त घटना की कल्पना की जाय। उसमें कहा है कि जब स्वर्ग लोक से माता के गर्भ में आने के पहले ही आपने पृथ्वीमंडल को सुवर्णमय कर दिया था, तब ध्यान के द्वारा मेरे अन्तर में प्रवेश करके यदि आप मेरे इस शरीर को सुवर्णमय कर दें तो कोई आश्रय नहीं है। यह एक भक्त कवि की सुन्दर और अनूठी उत्प्रेक्षा है, जिसमें वह अपनेको कर्मों की मलिनता से रहित सुवर्ण या उज्ज्वल बनाना
प्रशस्ति ( श० सं० १०५०) तथा दूसरे शिलालेखों में इसका उल्लेख अवश्य होता । परन्तु जान पड़ता है तब
१ – हे जिन, मम स्वान्तगेहं ममान्तःकरणमन्दिरं त्वं प्रतिष्ठः सन् यत इदं मदीयं कुष्ठरोगाकान्तं वपुः शरीरं सुवर्णीकरोषि तत्किं चित्र तरिका न किमपि आश्चर्यमित्यर्थः ।