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________________ न्यायविनिश्चयविवरण में ही निवास करते हुए श० सं० ९४७ की कार्तिक सुदी ३ को बनाया था। यह जयसिंह का ही राज्यकाल है । यह राजधानी लक्ष्मी का निवास थी और सरस्वती देवी ( वाग्वधू ) की जन्मभूमि थी। यशोधरचरित के तीसरे सर्ग के अन्तिम ८, व पद्य में और चौथे सर्ग के उपान्त्य पद्य में कवि ने चतुराई से महाराजा जयसिंह का उल्लेख किया है। इससे मालूम होता है कि यशोधरचरित की रचना भी जयसिंह के समय में हुई है। राजधानी-चालुक्य जयसिंह की राजधानी कहाँ थी, इसका अर्भा तक ठीक ठीक पता नहीं लगा है। परन्तु पार्श्वनाथ चरित की प्रशस्ति के छठे उल्लेख से ऐसा मालूम होता है कि वह 'कट्टगेरी' नामक स्थान में होगी जो इस समय मद्रास सदर्न मराठा रेलवे की गदग-होटगी शाखा पर एक साधारण सा गाँव है और जो बदामी से १२ मील उत्तर की ओर है। यह पुराना शहर है और इसके चारों ओर अब भी शहर-पनाह के चिन्ह मौजूद हैं । उक्त श्लोक का पूर्वाद्ध मुद्रित प्रति में इस प्रकार का है लक्ष्मीवासे वसति कटके कट्टपातीरभूमौ कामावाप्तिप्रमदसुभगे सिंहचक्रेश्वरस्य ।। इसमें सिंहचक्र श्वर अर्थात् जयसिंहदेवकी राजधानी (कटक.) का वर्णन है जहाँ रहते हुए ग्रन्थकर्ता ने पार्श्वनाथचरित की रचना की थी। इसमें राजधानी का नाम अवश्य होना चाहिये; परन्त उत्त पाठ से उसका पता नहीं चलता । सिर्फ इतना मालूम होता है कि वहाँ लक्ष्मी का निवास था, और वह कट्टगा नदी के तीर की भूमि पर थी। हमारा अनुमान है कि शुद्ध पाठ 'कट्टगेरीति भूमौ होगा, जो उत्तर भारत के अद्धदग्ध लेखकों की कृपा से 'कट्टगातारभूमी' बन गया है। उन्हें क्या पता कि 'कट्टगेरी' जैसा अड़बड़ नाम भी किसी राजधानी का हो सकता है ? जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर या आहवमल्ल ने 'कल्याण' नामक नगरी बसाई और वहाँ अपनी राजधानी स्थापित की । इसका उल्लेख विल्हण ने अपने 'विक्रमांक देवचरित' में किया है। कल्याण का नाम इसके पहले के किसी भी शिलालेख या ताम्रपत्र में उपलब्ध नहीं हुआ है, अतएव इसके पहले चौलुक्यों की राजधानी 'कट्टगेरी' में ही रही होगी। इस स्थान में चालुक्य विक्रमादिन्य ((दे०) का ई० सं० १०१८ का कनड़ी शिलालेख भी मिला है जिससे उसका चालुक्य-राज्य के अन्तर्गत होना स्पष्ट होता है। कट्टगा नाम की कोई नदी उस तरफ नहीं है। मठाधीश-पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति में वादिराजसूरि ने अपने दादागुरु श्रीपालदेव को 'सिंहपुरैकमुख्य' लिखा है और न्यायविनिश्चयविवरण की प्रशस्ति में अपने आप को भी 'सिंहपुरेश्वर' लिखा है। इन दोनों शब्दों का अर्थ यही मालूम होता है कि वे सिंहपुर नामक स्थान के स्वामी थे, अर्थात् सिंहपुर उन्हें जागीर में मिला हुआ था और शायद वहीं पर उनका मठ था। श्रवणबेलगोल के ४९३ नम्बर के शिलालेख में-जो श० सं० १०४७ का उत्कीर्ण किया हुआ हैवादिराज की ही शिष्यपरम्परा के श्रीपाल विद्यदेव को होय्सल-नरेश.विष्णुवद्धन पोरसलदेव के द्वारा जिनमन्दिरों के जीर्णोद्धार और ऋषियों को आहार-दान के हेतु शल्य नामक गाँव को दानस्वरूप देने का वर्णन है और ४९५ नम्बर के शिलालेख में जो श० सं० ११२२ के लगभग का उत्कीर्ण किया हुआ हैलिखा है कि पडदर्शन के अध्येता श्रीपालदेव के स्वर्गवास होने पर उनके शिष्य वादिराज (द्वितीय) ने १-यातन्वजयसिंहता रणमुखे दीर्घ दधौ धारिणीम् । २-रणमुखजयसिंहो राज्यलक्ष्मी बभार ॥ ३-सर्ग २ श्लोक १। ४-इस मुनि परम्परा में वादिराज और श्रीपालदेव नामके कई आचार्य हो गये हैं। ये वादिराज दुसरे हैं। ये गंगनरेश राचमल्ल चतुर्थ या सत्यवाक्य के गुरु थे।
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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