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________________ ५८ न्यायविनिश्चयविवरण की रचना की थी। ऐसी दशा में सन् ६७६ के आसपास रची गई निशीथचूर्णि में अकलङ्क के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख एक ऐसा मूल प्रमाण बन सकता है जिसके आधार से न केवल अकलङ्क का ही समय निश्चित किया जा सकता है अपितु इस युग के अनेक बौद्धाचार्य और वैदिक आचार्यों के समय पर भी मौलिक प्रकाश डाला जा सकता है। मैं इसी ग्रन्थ के द्वितीय भाग की प्रस्तावना में या राजवार्तिक ग्रन्थ की प्रस्तावना में इसकी साधार छानबीन करना चाहता हूँ। अभी तक जो सामग्री प्राप्त हुई है उसके आधार से उपर्युक्त सूचना देकर विराम लेता हूँ। वादिराजसूरि का समय सुनिश्चित है। उनने अपना पार्श्वनाथचरिन शक सं० ९४७ कार्तिक सुदी ३ को बनाया था। ये उस समय चौलुक्य चक्रवर्ती जयसिंहदेव की राजधानी में निवास करते थे। उनके इस समय की पुष्टि अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से भी होती है। अतः सन् १०३५ के आसपास ही इस ग्रन्थ की रचना हुई होगी । जैन समाज के सुप्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ पं० नाथूरामजी प्रेमी ने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थ में वादिराजसूरि पर साङ्गोपाङ्ग लिखा है। उनका वह निबन्ध पाठकों की जानकारी के लिए साभार उद्धृत किया जाता है। वादिराजसरि परिचय और कीर्तन-दिगम्बर सम्प्रदाय में जो बड़े बड़े तार्किक हुए हैं, वादिराजसूरि उन्हीं में से एक हैं। वे प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्रादि के कर्ता प्रभाचन्द्राचार्य के समकालीन हैं और उन्हींके समाम भट्टाकलंक देव के एक न्याय-ग्रन्थ के टीकाकार भी। तार्किक होकर भी वे उच्चकोटि के कवि थे और इस दृष्टि से उनकी तुलना सोमदेवसूरि से की जा सकती है जिनकी बुद्धिरूप गऊ ने जीवनभर शुष्क तकरूप घास खाकर काव्यदुग्ध से सहृदयजनों को तृप्त किया था। वादिराज मिल यों द्रविण संघ के थे। इस संघ में भी एक नन्दिसंघ था, जिसकी अरुंगल शाखा के ये आचार्य थे । अरुगल किसी स्थान या ग्राम का नाम था, जहाँ की मुनिपरम्परा अरुंगलान्वय कहलाती थी। षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेकमल्लवादि उनकी उपाधियाँ थीं। एकीभावस्तोत्र के अन्त में एक श्लोक है जिसका अर्थ है कि सारे शाब्दिक (वैयाकरण), तार्किक और भव्यसहायक वादिराज से पीछे हैं, अर्थात् उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। एक शिलालेख में कहा है कि सभा में वे अकलङ्क-देव (जैन), धर्मकीर्ति (बौद्ध), बृहस्पति (चार्वाक ), और गौतम (नैयायिक) के तुल्य हैं और इस तरह वे इन जुदा जुदा धर्मगुरुओं के एकीभूत प्रतिनिधि से जान पड़ते हैं। मल्लिषेण-प्रशस्ति में उनकी और भी अधिक प्रशंसा की गई है और उन्हें महान् वादी, विजेता और कवि प्रकट किया गया है। १-देखो 'इविंण संघ में भी नन्दिसंघ ।' जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५४ । २-पटतर्कषण्मुख स्याद्वादविद्यापतिगलु जगदेकमल्लवादिगलु एनिसिद श्रीवादिराजदेवरुम् । -मि. राइसद्वारा सम्पादित नगर ताल्लुका के इन्स्क्रप्शन्स नं. ३६। ३-वादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु तार्किकसिंहः । __ वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहायः ॥-एकीभावस्तोत्र । 1-सदसि यदकलङ्कः कीर्तने धर्मकीर्तिर्वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समयगुरूणामेकतः संगताना प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः ॥-इ. नं. ३९ ५-यह प्रशस्ति श० सं० १०५० (वि० सं० ११८५) की उत्कीर्ण की हुई है। -त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेनोदगादिह । जिनराजत एकस्मादेकस्माद्वादिराजतः ॥४०॥
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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