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________________ प्रस्तावना और अभिनिबोध को अतिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा है । इसका अभिप्राय इतना ही है कि-मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध ये सब मतिज्ञान हैं, मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से इनकी उत्पत्ति होती है। मतिज्ञान इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है । इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को जब संव्यवहार में प्रत्यक्ष रूप से प्रसिद्धि होने के कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष मान लिया तब उसी तरह मनोमति रूप स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमान को भी प्रत्यक्ष ही कहना चाहिये । परन्तु संव्यवहार इन्द्रियजन्य मति को तो प्रत्यक्ष मानता है पर स्मरण आदि को नहीं। अत: अकल की स्मरण आदि को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष मानने की व्याख्या उन्हीं तक सीमित रही। वे शब्दयोजना के पहिले स्मरण आदि को मतिज्ञान और शब्दयोजना के बाद इन्हीं की श्रुतज्ञान भी कहते हैं। पर उत्तरकाल में असंकीर्ण प्रमाण विभाग के लिा-'इन्द्रिय और मनोमति सांब्यवहारिक प्रत्यक्ष, स्मृति आदि परोक्ष, श्रत परोक्ष और अवधि मनःपर्य य तथा कंवलज्ञान ये तीन ज्ञान परमार्थप्रत्यक्ष' यही व्यवस्था सर्वस्वीकृत हुई। परमार्थप्रत्यक्ष आत्ममात्र से उत्पन्न होता है । अवधि और मनःपर्यय ज्ञान सीमित विषयवाले हैं तथा कंवलज्ञान सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्ट आदि समस्त पदार्थों को जानता है। परमार्थप्रत्यक्ष की सिद्धि के लिए अकलङ्क देव का निम्नलिखित युक्तिवाद अन्तिम है "ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मात् सर्वार्थानवलोकते ॥" न्यायवि० श्लो०४६५-६६ । अर्थात्-ज्ञस्वभाव आस्मा के ज्ञानावरण कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने पर कोई ज्ञेय शेष नहीं रह जाता जो उस ज्ञान का विषय न हो सके। चूँ कि ज्ञान स्वभावतः अप्राप्यकारी है अतः उसे पदार्थ के पास 'या पदार्थों को ज्ञान के पास आने की भी आवश्यकता नहीं है। अतः ऐसे निरावरण अप्राप्यकारी पूर्ण ज्ञान से समस्त पदार्थों का बोध होना ही चाहिए । सबसे बड़ी बाधा ज्ञानावरण की थी..सो जब वह समूल नष्ट हो गया तो निरावरण ज्ञान स्वज्ञेय को जानेगा ही। इस तरह इस प्रत्यक्ष प्रस्ताव में प्रत्यक्ष का साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है। - - २ ग्रन्थकार न्यायविनिश्चय मूलग्रन्थ के प्रणेता जैनन्यायवाङ्मय के अमर प्रतिष्ठापक, उद्भटवादी, जनशासन के चिरस्मरणीय प्रभावक, अनेकान्तवाद के उपस्तोता आचार्यवर भट्टाकलदेव हैं। जिनके पुण्यगुणों का स्मरण, जिनके त्याग को पूतगाथा आज भी जीवन में प्रेरणा और स्फूर्ति देती है । जो न केवल जैन सम्प्रदाय के ही अमररत्न थे किन्तु भारतमाता का मुकुट जिन इनेगिने नररत्नों से आलोकित है उनमें अग्रणी थे । वे भारती के भाल की शोभा थे। शास्त्रार्थों में जिन्हें दैवीबल भी परास्त नहीं कर सकता था। उन शब्द-अर्थ के धनी पर अकिञ्चन अकलङ्कब्रह्म के मुख्य ग्रन्थ न्यायविनिश्चय का तदनुरूप व्याख्याकार वादिराजसूरि के विवरण के साथ प्रथमवार प्रकाशन किया जा रहा है । ग्रन्थ के प्रत्यक्ष प्रस्ताव का संक्षिप्त विषयपरिचय पहिले लिखा जा चुका है। ग्रन्थकारों के विषय में खासकर उनके समय आदि का ज्ञात परिचय कराना अवसरप्राप्त है । अकलङ्कदेव के समय आदि के विषय में मैं 'अकलङ्क ग्रन्थत्रय' की प्रस्तावना में विस्तार से लिख चुका हूँ। उसमें मैंने ग्रन्थों के आन्तर परीक्षण के आधार से इनका समय सन् ७२० से ७८० तक निश्चित किया था। धर्मकीर्ति तथा उनके शिष्यपरिवार के समय की अवधि के जो दशक निश्चित किए गए हैं, श्री राहुल सांकृत्यायन की सूचनानुसार उनमें संशोधन की गुंजाइश है। निशीथचूर्णि में दर्शनप्रभावक ग्रन्थों में जो सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख पाया जाता है वह सिद्धिविनिश्चय निश्चयतः अकलंककृत ही है और निशीथचूर्णि के कर्ता वे ही जिनदासगणि महत्तर हैं जिनने शकसं० ५९८ अर्थात् सन् ६७६ में नन्दीचूर्णि
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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