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________________ प्रस्तावना उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते हैं (= वतव्य है)? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं४ स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता (= वक्तव्य ) है ? नहीं, स्याद् अ-वक्तव्य है। ५ 'स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् अस्ति' अबक्तव्य है। ६ 'स्याद् नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है। ७ 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं 'स्यादस्ति च नास्ति च' अ-वक्तव्य है। दोनों के मिलाने से मालूम होगा कि जैनों ने संजय के पहिलेवाले तीन वाक्यों ( प्रश्न और उत्तर दोनों) को अलग करके अपने स्याद्वाद् की छह भंगियाँ बनाई हैं और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है। को जोड़कर 'स्याद्' भी अवक्तव्य है, यह सातवाँ भंग तैयार कर अपनी सप्तभंगी पूरी की।...... इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (= वाद) की स्थापना न करना जो कि संजय का वाद था, उसी को संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर जैनों ने अपना लिया और उसकी चतुर्भगी न्याय को सप्तभंगी में परिणत कर दिया। - राहुल जी ने उक्त सन्दर्भ में सप्तभंगी और स्याद्वाद् के स्वरूप को न समझकर केवल शब्दसाम्य से एक नये मत की सृष्टि का है। यह तो ऐसा ही है जैसे कि चोर से "क्या तुम अमुक जगह गये थे ? यह पूछने पर वह कह कि मैं नहीं कह सकता कि गया था" और जज अन्य प्रमाणों से यह सिद्ध कर दे कि चोर अमुक जगह गया था। तब शब्दसाम्य देवकर यह कहना कि जज का फैसला चोर के बयान से निकला है। संजयवेलडिपुत्र के दर्शन का विवेचन स्वयं राहुलजी ने (पृ. ४९१) इन शब्दों में किया है"यदि आप पूछे-'क्या परलोक है ? तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरह से भी नहीं कहना । मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है । परलोक नहीं है। परलोक नहीं नहीं है। परलोक है भी और नहीं भी है। परलोक न है और न नहीं है।" संजय के परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्ति के सम्बन्ध के ये विचार शतप्रतिशत अनिश्चयवाद के हैं । वह स्पष्ट कहता है कि-"यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ।" संजय को परलोक मुक्ति आदि के स्वरूप का कुछ भी निश्चय नहीं था इसलिए उसका दर्शन वकील राहुल जी के मानव की सहजबुद्धि को भ्रम में नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चय कर भ्रान्त धारणाओं की पुष्टि ही करना चाहता है । तात्पर्य यह कि संजय घोर अनिश्चयवादी था। बुद्ध और संजय-बुद्ध ने "लोक नित्य है', अनित्य है, नित्य-अनित्य है. न नित्य न अनित्य है; लोक अन्तवान् है, नहीं है, है-नहीं है, न है न नहीं है, निर्वाण के बाद तथागत होते हैं, नहीं होते', होते-नहीं होते, न होते न नहीं होते; जीव शरीर से भिन्न है', जीव शरीर से भिन्न नहीं है।" (माध्यमिक वृत्ति पृ० ४४६) इन चौदह वस्तुओं को अव्याकृत कहा है। मज्झिमनिकाय (२३) में इनकी संख्या दश है। इसमें आदि के दो प्रश्नों में तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिना गया है। इनके अध्याकृत होने का कारण बुद्ध ने बताया है कि इनके बारे में कहना सार्थक नहीं, भिक्षचर्या के लिए उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद निरोध शान्ति या परमज्ञान निर्वाण के लिए आवश्यक है। तात्पर्य यह कि बुद्ध की दृष्टि में इनका जानना मुमुक्षु के लिए आवश्यक नहीं था। दूसरे शब्दों में कुद्ध भी संजय की तरह इनके बारे में कुछ कहकर मानव की सहज बुद्धि को भ्रम में नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्त धारणाओं को पुष्ट ही करना चाहते थे। हाँ, संजय जब अपनी अज्ञानता या अनिश्चय को साफ साफ शन्दों में कह देता है कि यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ, तब बुद्ध अपने जानने न जानने का उल्लेख न करके उस रहस्य को शिष्यों के लिए अनुपयोगी बताकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। किसी भी तार्किक का यह प्रभ अभी तक भसमाहित ही रह जाता है कि इस अभ्याकृतता और संजय के अनिश्चयवाद में
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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