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________________ २० न्यायविनिश्चयविवरण और इस कल्पनाकोटि को परमार्थ सत् न मानने के कारण यदि जैनदर्शन का स्यावाद सिद्धान्त आपको मूलभूत तत्व के स्वरूप समझाने में नितान्त असमर्थ प्रतीत होता है तो हो, पर वह वस्तुसीमा का उल्लंघन नहीं कर सकता और न कल्पनालोक की लम्बी दौड़ ही लगा सकता है। स्यात् शब्द को उपाध्यायजी संशय का पर्यायवाची नहीं मानते यह तो प्रायः निश्चित है क्योंकि आप स्वयं लिखते हैं (पृ० १७३) कि-"यह अनेकान्तवाद संशयवाद का रूपान्तर नहीं है '' पर आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते हैं। परन्तु स्यात का अर्थ 'संभवतः' करना भी न्यायसंगत नहीं है क्योंकि संभावना संशय में जो कोटियाँ उपस्थित होती है उनकी अर्धनिश्चितता की भोर संकेन मात्र है, निश्चय उससे भिन्न ही है । उपाध्यायजी स्यावाद को संशयवाद और निश्चयवाद के बीच संभा. बनावाद की जगह रखना चाहते हैं जो एक अनध्यवसायात्मक अनिश्चय के समान है। परन्तु जब स्याद्वाद स्पष्ट रूप से ढंके की चोट यह कह रहा है कि-धड़ा स्यादस्ति अथीत् अपने स्वरूप, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने आकार इस स्वचतुष्टय की अपेक्षा है ही यह निश्चित अवधारण है। घड़ा स्वसे भिन्न यावत पर पदार्थों की दृष्टि से नहीं ही है यह भी निश्चित अवधारण है। इस तरह जब दोनों धर्मों का अपने अपने दृष्टिकोण से घड़ा अविरोधी आधार है तब घड़े को हम उभय दृष्टि से अस्ति-नास्ति रूप भी निश्रित ही कहते हैं। पर शब्द में यह सामर्थ्य नहीं है कि घट के पूर्णरूप को-जिसमें अस्ति नास्ति जैसे एक-अनेक नित्य-अनित्य आदि अनेकों युगल-धर्म लहरा रहे हैं-कह सके अतः समप्रभाव से घड़ा अवक्तव्य है। इस प्रकार जब स्याद्वाद सुनिश्चित दृष्टिकोगों से तत्तत् धर्मों के वास्तविक निश्चय की घोषणा करता है तब इसे सम्भावनावाद में कैसे रखा जा सकता है ? स्थात् शब्द के साथ ही एवकार भी लगा रहता है जो निर्दिष्ट धर्म का अवधारण सूचित करता है तथा स्यात् शब्द उस निर्दिष्ट धर्म से अतिरिक्त अन्य धर्मों की निश्चित स्थिति की सूचना देता है। जिससे श्रोता यह न समझ ले कि वस्तु इसी धर्मरूप है। यह स्याद्वाद कल्पित धर्मों तक व्यवहार के लिए भले ही पहुँच जाय पर वस्तुव्यवस्था के लिए वस्तु की सीमा को नहीं लाँघता। अतः न यह मंशयवाद है, न अनिश्चयवाद और न संभावनावाद ही, किन्तु खग अपेक्षा. प्रयुक्त निश्चयवाद है। इसी तरह डॉ. देवराज जी का पूर्वी और पश्चिमी दर्शन (पृष्ट ६५) में किया गया स्यात् शब्द का 'कदाचित्' अनुवाद भी भ्रामक है। कदाचित् शब्द कालापेक्ष है । इसका सीधा अर्थ है किसी समय । और प्रचलित अर्थ में यह संशय की ओर ही झुकाता है। स्यात् का प्राचीन अर्थ है कथञ्चित्-अर्थात किसी निश्चित प्रकार से, स्पष्ट शब्दों में अमुक निश्चिन दृष्टिकोण से। इस प्रकार अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद ही स्थावाद का अभ्रान्त वाच्यार्थ है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तथा इतः पूर्व प्रो० जैकोबी आदि ने स्थाद्वाद की उत्पत्ति को संजय बेलहिपुत्त के मत से बताने का प्रयत्न किया है। राहुलजी ने दर्शन दिग्दर्शन (पृ० ४९६) में लिखा है कि"आधुनिक जैनदर्शन का आधार स्याद्वाद है। जो मालूम होता है संजय बेलहिपुत्त के चार अंग वाले अनेकान्तवाद को लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है। संजय ने तत्वों (परलोक देवता) के बारे में कुछ भी निश्चयात्मक रूप से कहने से इन्कार करते हुए उस इन्कार को चार प्रकार कहा है , है? नहीं कह सकता। २ नहीं है ? नहीं कह सकता। ३ है भी और नहीं भी नहीं कह सकता। ४ न है और न नहीं है ? नहीं कह सकता। इसकी तुलना कीजिये जैनों के सात प्रकार के स्थाबाद से है? हो सकता है (स्यादस्ति) २ नहीं है? नहीं भी हो सकता है (स्यानास्ति) ३ है भी और नहीं भी है भी और नहीं भी हो सकता (स्मादस्ति च नास्ति च)
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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