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चतुर्थ परिच्छेद
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भावार्थ-पर्यायका एकांत पकडि करि विज्ञानाद्वैतवादी कहैं हैनिरंश अर क्षणिक एक ज्ञान ही है या सिवाय और आत्म वस्तु नाहीं ताकौं आचार्य ने कह्या जो ऐसा है तो “पूर्व में मैंने जान्याथा सो अब जानुहूँ" ऐसा स्मरण न ठहरैगा, तातै अनन्त धर्मका समुदायरूप अनादिनिधन आत्मा कथंचित् ज्ञानते न्यारा मानना योग्य है ॥२४॥
आगें ब्रह्माद्वैतकौं निषेधैं हैंनात्मा सर्वगतो वाच्यस्तत्स्वरूपविचारिभिः । शरीरव्यतिरेकेण येनासो दृश्यते न हि ॥२५॥
अर्थ-तिस आत्मस्वरूपके विचारनेवाले पुरुषनि करि सर्वव्यापी आत्मा कहना योग्य नाहीं जा कारण करि यह आत्मा शरीरतै न्यारा नहीं देखिए है।
भावार्थ-सर्वव्यापी आत्मा मान हैं सो मिथ्या है, जातै शरीरके बाहिर आत्मा न दीखें है ॥२५॥
आगें दोय पक्ष पूछकरि निषेध करें हैंशरीरतो बहिस्तस्य, किं ज्ञानं विद्यते न वा । विद्यते चेत्कथं तत्र, कृत्याकृत्यं न बुध्यते ॥२६॥ यदि नास्ति कुतस्तस्य, तत्र सत्तावगम्यते । लक्षणेन विना लक्ष्यं, न क्वापि व्यवतिष्ठते ॥२७॥
अर्थ-शरीरके बाहिर तिस आत्माका ज्ञान है कि नाहीं है, जो शरीरके बाहिर ज्ञान है तो तहां करनेयोग्य न करनेयोग्य क्यौं न जानिए है ॥२६॥
अर जो शरीरके बाहिर ज्ञान नहीं है तो तहां शरीरके बाहिर तिस आत्मा की सत्ता काहेरौं कहिए है जाते लक्षण बिना लक्ष्य कभी न तिष्ठै है।
भावार्थ-ज्ञान लक्षण है आत्मा लक्ष्य है सो जहां लक्षण नाहीं तहां लश्य भी नाहीं, तातें सर्वव्यापो आत्मा कहना मिथ्या है ॥२७॥