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________________ 'चतुर्थ परिच्छेद प्रत्येकं युगपद्वेभ्यो, भूतेभ्यो जायते भवी । विकल्पे प्रथमे तस्म, तावत्त्वं केन वार्यते ॥ १८ ॥ अर्थ – आचार्य पूछें हैं जीव है सो पृथ्वी आदि भूतनितें प्रत्येक न्यारे न्यारे उपजै है कि युगपत एकठा ही उपजै है; सो न्यारा न्यारा उपजै है ऐसा प्रथम विकल्प कहेगा तो तिस जोवकैं तावन्मात्रपना कौन करि निवारिए है । भावार्थ - पृथ्वी आदि न्यारे न्यारेनितें जीव उपजै तौ पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन इनि विष कोई एकका ही स्वभाव लीए जीव होय सो बने नाहीं ॥१८॥ विकल्पे सद्वितीयेऽपि कथमेकस्वभावकः । र्जन्यते वद चेतनः ॥ १६ ॥ [ ७६ भिन्नस्वभावकैरेभि अर्थ - बहुरि युगपत् एक ही कर उपजै है ऐसा दूसरा विकल्प ग्रहण करंगा तौभी न्यारे न्यारे है स्वभाव जिनके ऐसे पृथ्वी आदि भूत तिनकरि एक स्वभाव चेतन कैसे उपजाइए है सो कहिए । 1 भावार्थ- पृथ्वी आदि अनेक स्वभाव हैं तिनतैं एकस्वभाव चेतन्यका उपजना बनै नाहीं । ऐसे दोय पक्ष पूछ करि निर्वेद किया ॥ १६ ॥ आगे फेर वादी कहै है चेतनोऽचेतनेभ्योऽपि, भूतेभ्यो त विरुध्यते । भिन्नानां मौक्तिकादीनां तोयादिभ्योऽपि दर्शनात् ॥२०॥ . अर्थ - अचेतन जे पृथ्वी आदि भूत तिनतें चेतन हैं सो नाहीं विरोधकौं प्राप्त होय हैं, जातें भिन्न जे मुक्ता कल आदि जिनका जलादिकतें भिन्न दर्शन है । भावार्थ - अचेतन जे पृथ्वी आदि तिनतें चेतन के उपजने में किछू विरोध नाहीं जातें जलादि न्यारे जाति हैं तिनतें मोती न्यारे जाति उपजते देखिए है ॥२०॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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