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चतुर्थं परिच्छेद
नान्य लोके मतिः कार्या, मुक्त्वा शम्मँहलौकिकम् । दृष्टं विहाय नादृष्टे कुर्वते धिषणां बुधाः ॥५॥
पृथिव्यं भोग्निवातेभ्यो पिष्टोदकगुडादिभ्यो,
,
जायते यन्त्र वाहकः । मदशक्तिरिव
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स्फुटम् ॥६॥
पूर्वापरयोरियम् ।
जन्मपं चत्वयोरस्ति, सदा विचार्यमाणस्य, सर्वथानुपपत्तितः ॥७॥
अर्थ – कोई कहै है परलोक का आगम जो जाना ताविषै उद्यमी ऐसा जो आत्मा सो नाहीं है, अर ता आत्माके अभाव होतसंतें यहु कह्या जो तत्वनिका विचार सो काहे बने ? ॥ १ ॥
बहुरि परलोकवाले आत्मा के अभाव होतसंतैं परलोक भी नहीं है अर परलोकके अभाव होतसंत धर्म अधर्म की क्रिया वृथा है || २ ||
अब इस लोकके सुखकौं त्यागकरि जे दुर्बुद्धि तपस्या करें हैं ते हस्त मैं आए ग्रास छोडि अंगुलिकौं चाटें हैं ॥३॥
तातें पापकी शंकाकू छोडकर मनुष्य हैं ते जैसे होय तैसें चेष्टा करो, नष्ट भया जो चेतन ताका फेर जन्म नाहीं ॥४॥ -
इस लोकके सुखकों छोड़ि अन्य लोक विष बुद्धि करनी योग्य नाहीं जातें पंडित हैं ते प्रत्यक्षको छोड़ करि अप्रत्यक्ष बिषै बुद्धि न करें हैं ॥ ५ ॥
जैसे पीठी जल गुड़ इत्यादिकतैं प्रगटपने मदशक्ति उपजै है तैसें पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन इनितें चैतन्य जीव उपजै हैं ॥६॥
जन्मके अर मरणके पहलै अर पीछे जीव सदा नहीं है, जातें विचारते भए जीवकी सर्वथा अनुपपत्ति है ॥७॥ -
नास्तिक है है कि जैसैं चून गुड़ आदितें मदशक्ति उपजै है पृथ्वी आदतें चेतना उपजै है । अनादिनिधन जीव नाहीं ताका परलोक नाहीं तातं पापकी शँका छोड़ि यथेष्ट विषय निमें प्रवत्र्ती । ऐसी स्वच्छन्द प्रवृत्ति पोषी । अब आचार्य ताके वचनका खण्डन करें हैं