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________________ तृतीय परिच्छेद [७१ अर्थ-जैसे सुखके आधार जे भण्डार अर राज्य ते न्यायरहित राजाकै निश्चयकरि कहूँ भी न देखिए तैसैं सम्यक्त्वकरि वर्जित जीवकै पवित्र ज्ञान अर चरित्र न होय हैं। भावार्थ-सम्यक्त्व विना ज्ञानचारित्र सम्यक्पनेकौं न पावै तातें सम्यक्त्व सवनिमें प्रधान है ऐसा जानना ॥३॥ सुदर्शनेनेह विना तपस्या, मिच्छंति ये सिद्धिकरी विमूढाः । कांक्षति वीजेन विनापि मन्ये, कृषि समृद्धां फलशालिनी ते ॥४॥ अर्थ-जो लोग इहां सम्यग्दर्शन विना सिद्धि करने वाली तपस्याकू वांछे हैं सो मैं मानूह कि ते पुरुष बीजविना फलकरि शोभित वृद्धिकौं प्राप्त ऐसी खेती कू चाहे हैं। भावार्थ-सम्यकदर्शन विना अनशनादि क्रिया ताका विना शून्यवत, शून्य ही है तातें मम्यग्दर्शन सहित क्रिया करनी योग्य है ॥४॥ लोकालोकविलोकिनीमकलिलां गीर्वाणवर्गाचितां, दत्ते केवलसम्पदं शमवतामानीय या लीलया। सम्यग्दृष्टिपास्तदोषनिवहा यस्यास्ति सा निश्चला, तेन प्रापि न किं सुखं बुधजनरभ्यर्थ्यमानं चिरम् ॥८॥ अर्थ-नाश भये हैं शंकादिक दोषनिके समूह जाके ऐसी निर्दोष निश्चल सम्यग्दृष्टि जाकै है ता पुरुष करि पंडित जननि करि बहुत काल तांई प्रार्थना किया ऐसा जो सुख सो कहा न पाया? अपितु पाया ही। कैसी है सम्यादृष्टि जो लीलामात्र करि मुनिराजनिकौं केवलज्ञान की जो सम्पदा ताहि ल्याय करि देय है, कैसी है केवलज्ञान सम्पदा लोकालोककी देखनेवाली अर पापमल रहित अर देवनि के समूहनि करि पूजित ऐसी है। भावार्थ-सम्यक्त्व भए केवलज्ञानकी प्राप्ति शीघ्र ही होय है ऐसा जनाया है ॥५॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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