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श्री अमितगति श्रावकाचार
पूर्व कोटिद्वयोपेतास्त्रयस्त्रिरान्नदीशिनः । ईषदुनास्थितिज्ञेया, क्षायिकस्योत्तमा बुधैः ॥६२॥
अर्थ – किंचित् ऊन दोय कोटि पूर्वसहित तेतीस सागर की क्षायिक सम्यक्त्व की स्थिति पंडितनि करि जाननी योग्य है ॥ ६२ ॥
अधस्तात् श्वभ्रभूषट्के, सर्वत्र प्रमदाजने । निकायत्रितयेsपूर्णे, जायते न सुदर्शनः ॥ ६३॥
अर्थ - नीचें तें लेकरि छह नरकनिविषै, सर्वत्र स्त्रीन विषै अर ज्योतिषी भवनवासी व्यन्तर इन तीन निकाय देवनिविषै अपर्याप्तमें सम्यग्दर्शन न होय हैं ॥ ६३॥
पंचाक्षं संज्ञिनं हित्वा परेषु द्वादशस्वपि । उत्पद्यते न सद्दृष्टिमिथ्यात्वव भाविषु ॥६४॥
अर्थ - पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त, इनि दोय जीवसमास निकौं वर्जिकरि और मिथ्यात्वके बलकरि उपजनेवाले जे बादर एकेन्द्रिय सूक्ष्म एकेन्द्रिय वे इन्द्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रय अर असंज्ञी पंचेंद्रिय तिनके पर्याप्त अर अपर्याप्त ऐसें बारह जीवसमासनि विषं सम्यग्दृष्टि न उपजे है ||६४||
वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा ।
विरागं क्षायिकं तत्र, सरागमपरं द्वयम् ॥६५॥
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अर्थ – वीतराग अर सराग ऐसें सम्यक्त्व दोय प्रकार कह्या है । तहां क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है, अर क्षयोपशम, उपशम ए दोय सम्यक्त्व सराग हैं ॥६५॥
संवेगप्रश मास्तिक्यकारुण्यव्यक्त नक्षणम् ।
सरागं पटुभिर्ज्ञेयमुपेक्षा लक्षणं परम् ॥६६॥
अर्थ – संग कहिये धर्मतें अनुराग, प्रशम कहिये कषायनिकी मंदता, आस्तिक्य कहिये आप्त आगम पदार्थनिविषै ' है ऐसे ही है' ऐसा भाव,