SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२] श्री अमितगति श्रावकाचार प्रशमय्य ततो भव्यः, कर्मप्रकृतिसप्तकम् । प्रान्तमौ हूर्तिकं पूर्व, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥५३॥ अर्थ-ताके अनन्तर भव्यजीव सात कर्मप्रकृतिनिकौं उपशमायकरि अन्तरमुहूर्त है स्थिति जाकी ऐसा प्रथमसम्यक्त्व कौं प्राप्त होय है । भावार्थ-अनादि मिथ्यादृष्टितौ मिथ्यात्व अर अनन्तानबन्धी चतुष्क ऐसे पांच प्रकृतिनको अर मिथ्यादृष्टि अनन्तानुबन्धी सहित तोन प्रकृतिनकौं उपशमाय सम्यक्त्वी होय है यह विशेष है ॥५३॥ : आगें क्षायिकसम्यक्त्वकौं कहे हैं :क्षपयित्वा परः कश्चित्कर्मप्रकृतिसप्तकम् । प्रादत्त क्षायिकं पूर्व, सम्यक्त्वं मुक्तिकारणम् ॥५४॥ अर्थ-बहुरि दूजो कोई जीव कर्मप्रकृतिनिका सप्तक जो अनन्तानुबन्धी च्यार कषाय अर मिथ्यान्व, मिश्र, सम्यक्त्वप्रकृति इन सात प्रकृति निकौं खिपाय करि प्रथम मुक्ति का कारण जो क्षायिकसम्यक्त्व ताहि ग्रहण कर है ॥५४॥ प्रशमे कर्मणां षण्णामुदयस्य क्षये सति । आदत्त वेदकं वंद्यं, सम्यक्त्वस्योदये सति ॥५॥ अर्थ-अनन्तानुबन्धी कषाय च्यारि अर मिथ्यात्व, मिश्रमिथ्यात्व इन छह कर्मनिका उपशम होतसतै अर उदय का क्षय होतसन्तै अर सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होतसन्तै वन्दनेयोग्य जो वेदक सम्यक्त्व ताहि ग्रहण करै है। भावार्थ-वर्तमानमें उदय आवनेयोग्य निषेकनिका उदय का अभाव है लक्षण जाका ऐसा तो क्षय हो, तैं सन्तै अर ता पीछे उदय आवने योग्य निषेकते उदीरणारूप होय वर्तमानमें उदय न आवै ऐसें तिनकी सत्ता है लक्षण जाका ऐसा उपशम अर सम्यक्त्वप्रकृति देशघाती है ताका उदय होते वेदकसम्यक्त्व होय है जातें जाके उदयसै मल उपजै अर गुण का अंश भी बन्या रहै ऐसा देशघातीका लक्षण सर्वत्र कह्या है ।।५।।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy