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श्री अमितगति श्रावकाचार
दाहवाहांकनच्छेदशीतवातादिगोचराः ।... परायत्तेषु तिर्यक्षु, विवेकरहितात्मसु ॥३३॥ देनदारिद्र यदौर्भाग्य, रोग शोकपुरःसराः । आर्यम्लेच्छप्रकारेषु, मानुषेषु निरन्तराः ॥३४॥ स्वस्य हानि परस्पद्धिमीक्षमाणेषु मानिषु । योज्यमानेषु देवेषु, हठतः प्रेष्यकर्मणि ॥३५॥ मिथ्यात्वेन दुरन्तेन, विधीयन्ते शरीरिणाम् । वेदना दुःसहा भीमा, वैरिणेव दुरात्मना ॥३६॥
अथ –क्षेत्रके स्वभाव करि भयानक अर अन्तरहित दुःख करि सहे जाय ऐसे नानाप्रकार दुर्वचनतें उपजी वा शरीर मनतें उपजी बहुत कालपर्यन्त नरकवि जे दुःखवेदना होते, बहुरि विवेकरहित पराधीन तिर्यंचयोनिमें दाहदेना बांधना चिह्न करना शीत वात इत्यादिकतें उपजी पीड़ा, बहुरि आर्यम्लेच्छ है भेद जिनके ऐसे मनुष्यनिविषं निरन्तर दीनपना, दारिद्र यपना, दुर्भाग्यपना, रोग, शोक. आदि अनेक वेदना, बहुरि हठतें चाकरके कर्मविर्षे युक्त भये अर अपनी हानि अर दूसरेनकी वृद्धि देखनेते ऐसे मानी देवनिविर्षे दुःखकरि सुनी जाय ऐसी भयानकं वेदना. दष्ट वैरीकी ज्यों दूर है अन्त जाका ऐसा जो मिथ्यात्व ताकरि जीवनिके करिये है। . .. ... ... .
. .. भावार्थ-चारगति सम्बन्धी दुःखनिका मूल कारण एक मिथ्यात्व है ऐसा जानना ॥३६॥
यान्यन्यान्यपि दुःखानि, संसाराम्भोधित्तिनाम् ।। न जातु यच्छता तानि, मिथ्यात्वेन विरम्यते ॥३७॥
अर्थ संसारसमुद्रवर्ती प्राणोनिकौं और भी जो दुःख है तिनहिं देता जा मिथ्यात्व ताकरि अन्तकौं प्राप्त न हूजिये है।
भावार्थ और भी अनेक दुःखनिकी देता मिथ्यात्वं गमन न पाय है, निरन्तर दुःख देय है ॥३७॥ ।