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द्वितीय परिच्छेद
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भाव र्थ-जैसें मारगतें अन्यत्र चलने वाला बहुत चालता भो वांछित स्थानकौं उलटा दूर करै है तैसें मिथ्या ष्टि घोर तप करता भी वांछित मोक्षपदकौं उलटा दूरि कर हे कर्म बांध है, ऐसा जानता ॥२७॥
न मिथ्यात्वसमः शत्रुर्न, मिथ्यात्वसमं विषम् । न मिथ्यात्वसमो रोगो, न मिथ्यात्वसमं तमः ॥२८॥
मर्थ-मिथ्यात्वसमान वैरो नांहीं, अर मिथ्यात्वसमान विष नाही, अर मिथ्यात्वसमान रोग नांहों, अर मिथ्यात्वसमान अन्धकार नांहीं ॥२८॥
द्विषद्विषतमोरोगर्दु :खमेकत्र दीयते । मिथ्यात्वेन दुरन्तेन, जन्तोर्जन्मनि जन्मनि ॥२६॥
अर्थ-वैरी, विष, अन्धकार रोग इन करि दुःख एक जन्मविर्षे दीजिए है । अर दूर है अन्त जाका ऐसा जो मिथ्यात्व ताकरि जी कौं जन्म जन्मविर्षे दुःख दीजिए हैं ॥२६॥
वरं ज्वालाकुले क्षिप्तो, देहिनात्मा हुताशने। . न तु मिथ्यात्वसंयुक्तं, जीवितव्यं कथंचन ॥३०॥
अर्थ-ज्वालानि करि आकुल जो अग्नि ताविषं तो आत्मा खेप्य भला परन्तु मिथ्यात्वसहित जोवना कोई प्रकार भला नाहीं ॥३०॥
पापे प्रवर्त्यते येन, येन धर्मानिवर्त्यते । दुःखे निक्षिप्यते येन, तन्मिथ्यात्वं न शांतये ॥३१॥
अर्थ-जिस मिथ्यात्व करि पापविर्षे प्रवृत्ति कराइये है, अर धर्मतें पराम्मुख करिए है, अर दुःखवि पटकिये ह सा मिथ्यात्व शातिके अथा नांहीं।
नावाय-मिथ्यात्वसेवन करि कोऊ शांति मानै सो मिथ्यात्वकरि शांति न होय है उलटा विघ्न होय है ऐसा जानना ॥३१॥
क्षेत्रस्वभावतो धोरा, निरन्ता दुःसहाश्चिरम् । विनिया दुर्वधाः श्व, कायमानससम्भवा ॥३२॥