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पंचदश परिच्छेद
सज्जनो दुर्जनो दीनो, लुब्ध मत्तोऽपमानितः । जातचित्तात्मसंभ्रांतेरेषा भवति शेमुषी ॥६५॥
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प्रथं - मैं चतुर हूँ, पंडित हूँ, मूर्ख हूँ, दरिद्री हूँ, धनवान हूँ, निर्धन हूँ, क्रोधी हूँ ईर्ष्यायुक्त हूँ, मोही हूँ, द्वेषी हूँ, रागी हूँ, अज्ञानी हूँ, ज्ञानी हूँ, सज्जन हूँ दुर्जन हूँ, दीन हूँ, लोभी हूँ प्रमादी हूँ, अपमान सहित हूँ ऐसी यहु बुद्धि उपजै हैं रागादिक भावनि मैं आपकी भ्रांति जा ऐसा जो पुरुष ताकै होय है ॥ ६४॥
मिथ्याबुद्धि सम्यक् बुद्धिका फल कहैं हैं
देहे यात्ममतिर्जंतोः सा वर्द्धयति संस्थितिम् श्रात्मन्यात्ममतिर्या सा, सद्यो नयति निर्वृतिम् ॥६६॥
अर्थ - जो देह विषै आपेकी बुद्धि है सो जीवकै संसार बढ़ावै । बहुरि जो आत्मा विषै आत्म बुद्धि है सो शीघ्र मुक्तिकौं प्राप्त करे हैं ॥६६॥
यो जागत्यत्मिनः कार्ये, कायकार्यं स मुंचति ।
यः स्वरित्यात्मनः कार्ये, कायकार्यं नरोति सः ॥ ६७ ॥
सो
अर्थ – जो पुरुष आत्माके कार्य मैं जागे है अपने हित में सावधान है। पुरुष शरीर के कार्यकौं त्याग है, शरीर सम्बन्धी क्रिया मैं उदासीन रहैं है बहुरि जो आत्माके कार्य विषै सोवे है आत्माके हित मैं उद्यमी नाहीं सा शरीर सम्बन्धी क्रियाकौं करै है || ६७ ॥
ममेदमहमस्यास्मि, स्वामी देहादिवस्तुनः ।
यावदेषा मतिर्बाह्य तावद्धय ने कुतस्तनम् ॥६८॥
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अर्थ – ये शरीरादि परद्रव्य मेरा है अर मैं शरीरादि परवस्तुका स्वामी हूँ ऐसी बुद्धि जहां ताई बाह्य परद्रव्य विषै है तहां ताई ध्यान कहांतें होय ॥६८॥