SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० ] श्री अमितगति श्रावकाचार हीन हूँ, बलवान हूँ, निर्बल हूँ, स्त्री हूँ, पुरुष हूँ, नपुंसक हूँ, विरूप हूँ, रूपवान हूँ, ऐसी यहु कल्पना है सो उपजी है शरीर मैं आत्माकी भ्रांति जाकै जो शरीर ही आत्मा है ऐसें मिथ्यादृष्टिकें होय है जातें काला गौरा आदि देहके धर्म हैं आत्मा के नाहीं, बहुरि जो पुरुष शरीरका अर आत्माका भेद देखे है श्रद्धा करें है ताकै यह कल्पना न होय है ।।५-६०।। शत्रु मित्र पितृभ्रातृमातृकांतासुतादयः । देहसम्बन्धतः संति, न जीवस्य निसर्गजाः ॥ ६१ ॥ अर्थ – देहका अपकार करनेवाला सो शत्रु अर देहका उपकार करनेवाला सो मित्र अर देहका उपजावनेवाला सो पिता अर जहां देहकी उत्पत्ति तहां ही जाकी उत्पत्ति होय सो भाई अर देहकौं उपजावै सो माता अर देहकौं रमावै सो स्त्री, देहतें उपज्या सो पुत्र इत्यादि सर्व जीवकै शत्रु आदिक देहके संम्बंधतें हैं, स्वभाव जनित नाहीं ॥ ६१ ॥ * श्वाभ्रास्तिर्यङ नरो देवो, भवामीति विकल्पना | श्वाभ्रातिर्यङ नृदेवांग संगतो न स्वभावतः ॥६२॥ अर्थ- मैं नारकी हूँ, तिर्यंच हूँ, मनुष्य हूँ, देव हूँ, ऐसी यहु कल्पना है सो नारक तिर्यंच मनुष्य देवनिके शरीरके संगतें हैं स्वाभावतें नाहीं ॥६२॥ बालकोऽहं कुमारोऽहं तरुणोऽहमहं जरी । एता देहपरिणामजनिताः, संति कल्पना: ॥ ६३ ॥ अर्थ - मैं बालक हूँ, मैं कुमार हूँ, मैं तरुण हूँ, मैं वृद्ध हूँ ऐसी जे कल्पना हैं ते शरीरके परिणाम करि उपजी हैं ॥ ६३ ॥ विदग्धः पंडितो मूर्खो, दरिद्रः सधनोऽवनः । कोपनोऽसूयको मूढो, द्विष्टस्तुष्टा शठोऽशठः ॥६४॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy