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पंचदश परिच्छेद
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ससमर्थ निर्मलीकत्त, शुक्लं रत्नशिखास्थिरम् ।
अपूर्वकरणादीनां, मुमूक्षणां प्रवर्तते ॥१८।।
अर्थ-निर्मल करनेकौं समर्थ ऐसा जो शुक्ल ध्यान है सो अपूर्वकरण आदि सात गुणस्थानवाले मोक्षके वांछक जे आत्मा तिनके प्रवर्ते है। कैसा है शुक्ल ध्यान रत्नकी शिखा समान स्थिर है, जैसे रत्नकी शिखा पवनादिकतें न चले तैसें शुक्ल ध्यान रागादिकतें न चलै है ॥१८॥
अह्वायोद्ध यते सर्व, कर्म ध्यानेन संचितम् । वृद्ध समीरणेनेव, वलाहककदंबकम् ॥१६॥
अर्थ--संचय किया जो सर्व कर्म है सो ध्यानकरि शीघ्र उडाइए हैं तैसें ॥१६॥
ध्यानद्वयेन पूर्वेण, जन्यंते कर्मपर्वताः ।
वज्रणेव विभिद्यते, परेण सहसा पुनः ॥२०॥
अर्थ-पहले दोय ध्यान जे आर्तरौद्र तिनकरि कर्मरूपी पर्वत उपजाइए है। बहुरि पिछले जे दोय धर्मध्यान शुक्ल ध्यान तिन करि कर्म-पर्वत शीघ्र ही भेदिए है।
भावार्थ-आर्तरौद्रतै कर्म बंधे हैं अर धर्म शुक्लनितें कर्मनिका नाश होय है, ऐसा जानना ॥२०॥
यो ध्यानेन विना मूढः, कर्मच्छेदं चिकीर्षति ।
कुशिलेन विना शैलं, रफुटमेष विभित्सति ॥२१॥
अर्थ जो मूढ ध्यान विना कर्मनिका नाश करनेकौं इच्छे है सो प्रगट यह वज्रविना पर्वतके छेदनेकौं इच्छै है ॥२१॥
ध्यानेन निर्मलेनाऽऽशु, हन्यते कर्मसंचयः ।
हुताशनकणेनापि, रनुष्यते किं न काननम् ॥२२॥ ___ अर्थ-निर्मल ध्यान करि शीघ्र कर्मनिका समूह नाश कीजिए है। जैसे अग्निके कण करि भी कहा वन न जलाइए हैं, जलाइए ही है॥२२॥