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चतुर्दश परिच्छेद
अर्थ - जहां ताई बाह्य पर पदार्थनि विषै ये मेरे हैं ऐसी अनर्थ करनेवाली बुद्धि है तहां ताई इस जीवका संसारतें निकसना नाहीं इस कारण सो बुद्धि मन वचन काय करि त्यागना ||३२||
ऐसें अन्यत्वभावना कही । आगे - अशुचित्वभावनाकौं कहै हैंक्षणादमेध्याः शुचयोऽपि भावाः, संसर्गमात्रेण भवंति यस्य 1
शरीरतः सन्ततिपूतिगन्धेः परं किचन
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नास्त्यचौक्ष्यम् ॥३३॥
अर्थ - जा शरीरके संसर्गमात्र करि क्षणमात्र मैं पवित्र पदार्थ भी अपवित्र होय है, तातें निरन्तर दुर्गंधरूप जो शरीर तातें अन्य किछू अपवित्र नाहीं ॥ ३३ ॥ बहुप्रकाराशुचिराशिपूर्ण, शुक्रासृजाते शुचिता क्क काये । श्रमेध्य पूर्णः किममेध्य कुम्भो, दृष्टो हि मेध्यत्वमुपाददानः ॥ ३४ ॥
अर्थ – अनेक प्रकार विष्टादिक अपवित्र वस्तुनि करि भय्या अर वीर्य अर रुधिरतें उपज्या ऐसा जो शरीर ताविषें पवित्रता कहूँ नाहीं, जातें व्रिष्टा करि भर्या अपवित्र कुम्भ पवित्रताकौ धारता कहूँ देख्या नाहीं ॥ ३४ ॥ मज्जास्थि मेदोमलमांसखानि, विगर्हणीयं कृमिजालगेहम् ।
देहं दधानः शुचिताभिमानं, मूर्खो विधत्ते न विशुद्धबुद्धिः ॥ ३५॥ अर्थ- - मज्जा अर हाड अर मेद अर मल विष्टादिक इनके उपजनेकी खानि अर निन्दने योग्य अर कीडानिके समूहका घर ऐसा जो देह ताहि धारता सन्ता पवित्रपनेका अभिमान मूर्ख घारै है, निर्मल बुद्धि न धारै ॥ ३५॥ वनवस्त्रातृविचिगूय, यो वारिणा शोधयते शरीरम् ।
अह्नाय दुग्धेन निघृष्य मन्ये, विशुद्धमंगारमसौ विधत्तं ॥ ३६ ॥
अर्थ- जो भरें है नव द्वारानितै नाना प्रकार मल जातें ऐसा जो शरीर ताहि जल करि पवित्र करे है सो मैं ऐसा मानू हूँ ये कोयलाकों दूध घसके जल्दी विशुद्ध करे है || ३६ ||
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न हन्यते तेन जलेन पापं विषद्धयते येन विवद्धर्य रागम् । यस्य वर्णप्रभवे समर्थ, तत्तस्य दृष्टं न विनाशकारि ॥३७॥