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________________ ३४०] श्री अमितगति श्रावकाचार भवन्ति ये कार्मणयोगसम्भवाः, परेऽत्र भावा वपुरात्मजादयः । विहाय ते दुःख परम्परां, परं न किचिद्विपरीतमीशते ॥२६॥ अर्थ- इस लोक विष कर्मनिके संयोगते निपजे शरीर पुत्रादिक जे पदार्थ हैं ते केवल दुःखकी परम्पराय विना और किछु दुःखतें विपरीत जो सुख ताहि करवे समर्थ नाहीं। भावार्थ- शरीरादिक परपदार्थमैं आपाकी बुद्धि है सो दुःखहीका कारण है सुखका कारण नाहीं ॥२६॥ अनात्मनीना भवदुःखहेतवो, विनश्वराः कर्मभवा यतोऽखिलाः । ततो न बाह्यषु विशुद्धबुद्धयो, ममेति बुद्धि मनसाऽपि कुर्वते ।।३०। अर्थ-जातें कर्मणके उदयतें भये समस्त शरीरादिक पदार्थ हैं ते आत्माके अथि हितरूप नाहीं अर संसार द:खके कारण हैं अर विनाशीक हैं तातें बाह्या पदार्थनि विर्षे "यह मेरे हैं" ऐसी बुद्धिकौं मन करि भी न करें हैं ॥३०॥ न विद्यते यत्रकलेवरं निजं, स्वकीयबुद्धया मनसि व्यवस्थितम । तदीयसम्बन्धभवाः सुतादयः, परे कथं तत्र निजा निगद्यताम ॥६१॥ अर्थ-जहां आपकी बुद्धि करि मन विषं तिष्ठ्या जो शरीर सो आपका नाहीं तहां तो शरीरके सम्बन्धतें उपजे जे अन्य पुत्रादिक ते कहो, आपके कैसें होय ? ॥३१॥ करोति बाह्यषु ममेति शेमुषों, परश्वयं यावदनर्थकारिणीम् । न निर्गमस्तावदमुष्य संसृते, रिति त्रिधा सा विदुषा विम च्यतान ॥३२॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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