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________________ चतुर्दश परिच्छेद [ ३३५ भावार्थ-जो इन्द्रादिक देव भी मरणकौं न निवारि सक तौ औरनकी कहां कथा । जैसें मतवारे हाथिन करि भी जो वक्ष भग्न न भया तो सुस्सानि करि भङ्ग कैसें कीजिए। स्यन्दनद्विपदातितुरंगमंत्रितन्त्रजपपूजनहोभैः। शक्यते न खलु रक्षितुमङ्गी, जीवितव्यपगमे म्रियमाणः ॥१०॥ अर्थ-रथ हाथो प्यादे घौडे निकरि तथा मन्त्र तन्त्र जप पूजन होम इन करि आयुके नाश भये जो मरता जीव सो राखनेकौं समर्थ न हूजिए है ॥१०॥ मे धरन्ति धरणी सह शैलैर्ये क्षिपन्ति सकलं ग्रहचकम् । ते भवन्ति भुनने न स कश्चिद्यो निहन्ति तरसा यमराजम् ॥११॥ अर्थ-जे जीव समस्त पर्वतनिसहित पृथ्वीकौं धारै हैं अर सकल ग्रहचक्रकौं क्षेपं हैं ऐसे पुरुष तौ लोकविर्षे हैं परन्तु सो कोई पुरुष नाहीं जो वेगकरि यमराजको नाश करै है ॥११॥ यो निहन्ति रभसेन बलिष्ठानिन्द्रचन्द्ररविकेशवरामान् । रक्षको भवति कश्चन मृत्य निघ्नतो भवभूतो न ततोऽत्र ॥१२॥ अर्थ-जो यमराज वेगकरि वलवान जे इन्द्र चन्द्र सूर्य नारायण बलभद्र तिनहि हन है तातें इस लोकविष जीवनिका नाश करता जो यम तातें बचावनेवाला कोऊ नाहीं। भावार्थ-अन्यमती यमको देव माने हैं सो मिथ्या है अर आयुका जो पूर्ण भये दोऊ राखनेकौं समर्थ नाहीं, सम्यकदर्शनादिक वा अरहंतादिक शरण हैं जातें वस्तुका स्वरूप जाने मरणका भय रहै नाहीं, अर सिद्धपद पावै तहां फेर मरण होय नाहीं, तातें पर कोऊ शरण नाहीं, आपका आप ही शरण है ॥१२॥ __ या प्रकार अशरण भावना कही । आर्गे-संसार भावनाकौं कहै हैं-- चित्रजीवाकुलायां तनभागिना, कुर्वता चेष्टितं सर्वदा मोहिना। गल्ता मुंचता विग्रहं संभृतो, नर्तकेनेव रङ्गक्षितौ भ्रम्यते ॥१३॥ अर्थ-इस मोही जीवकरि एकेंद्रियादि नाना जीवनिकरि भरी नृत्य करनेकी भूमिसमान जो यह संसारपरिणति ताविषे नटवाकी ज्यों
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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