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________________ ३३४] श्री अमितगति श्रावकाचार | अर्थ-तीन भवन विर्षे ते शरीरके धारी जीव नाहीं जे यमके मन्दिरकौं न जाय-सब ही मरणकौं प्राप्त होय हैं। जैसे इंद्रधनुष करि रचे जे बादले ते ऐसे कहां हैं जे नष्ट न होय, सर्व ही नसें हैं ॥५॥ देहपंजरमपास्य जर्जरं, यत्र तीर्थपतयऽतिपूजिताः। यांति पूर्णसमये शिवास्पदं, तत्र के जगति नात्र गत्वराः ॥६॥ अर्थ-जिस संसार विर्षे अत्यंत पूजनीक जे तीर्थंकर देव ते भी आयुके पूर्णसमय जर्जरे देह पींजराको त्यागकै सिद्धालयकौं पधारे हैं तहां इस जगत विर्षे और कौन जानेवाले नाही, सर्व ही परलोककौं जाय हैं ॥६॥ ऐसें अनित्य भावना कही । आर्ग-अशरण भावनाकौं कहैं हैंयं करोति पुरतो यमराजा, भक्षणाय भुवने क्षुधितात्मा । कानने मृगमिव द्विपवैरी, तस्य नास्ति शरणं भुवि कोऽपि ॥७॥ ___ अर्थ-क्षुधा सहित है आत्मा जाका ऐसा जमराज सो जीवकों भक्षण करनेके अथि आगै कर है ता जीवका लोक विर्षे कोई भी शरण नाहीं । जैसे वनमें मगकौं सिंह भक्षण करनेकौं होय तब ताकौं कोई शरण नाहीं तैसें ॥७॥ अंतकेन यदि विग्रहभाजः, स्वीकृतस्य समपत्स्यत पाता। रक्षितः सुखरैरमरिष्यन्नो तदा सुखधूनिकुरंवः ॥८॥ अर्थ-कालतें ग्रह्या जो प्राणी ताकी मरणतें जो रक्षा होय तो इंद्रादिक देवनिकरि रक्षित जो देवांगनानिका समूह सो न मरता। भावार्थ-मरणतें रक्षा होय तौ इंद्र अपनी देवांगनानिकौं न मरने देय तातें मरण होतें जीवकै शरण नाहीं ॥८॥ यं निहंतुममरा न समर्था, हन्यते न स परैः समवर्ती । यो द्विपर्न समदरपि भग्नो, भज्यते हि शशकैर्न स वृक्षः ॥६॥ अर्थ-जा जमराजके हनिवेकौं देव समर्थ नाहीं सो जीवनिकरि कैसे हनिए।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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