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श्री अमितगति श्रावकाचार
विर्षे चल्या आया भी जो कुष्ठ रोग ताहि तजेंहैं तैसें लोकपूज्य धर्मकौं पायकरि कुलमें चल्या आया भी जो पाप ताहि तजें हैं ॥६६॥ मूर्खापवादत्रसनेन धर्म, मुचंति सन्तो न बुधार्चनीयम् । ततो हि दोषः परमाणुमात्रो, धर्मव्युदासे गिरिराजतुल्यः ॥७०॥ ____ अर्थ- मूखनके अपवादक भयकरि पंडितनिकरि पूज्य जो धर्म ताहि सत्पुरुष न त्यागैहै, जातें तिस मूर्खापवादतें तो दोष परमा गुमात्र है अर धर्मनाश भए सुमेरुतुल्य दोष है ऐसा जानना ॥७०॥
निखिलसुखफलानां कल्पने कल्पवृक्षं, .... कुमतिमतविभीता ये विमुचंति धर्मम्। .......
विमलमणिनिधानं पावनं दुष्टतुष्टयै,
स्फुटमपगतबोधाः, प्राप्य ते बर्जयन्ति ॥७१॥ अर्थ-जे कुबुद्धिनिके मततें भयभीत भयेः मन्ते समस्तसुखरूप फलनिके देवेविर्षे कल्पवृक्ष तुल्य जो धर्म ताहि तजेंहैं ते अज्ञानी पवित्र निर्मल रत्नका भण्डारकों प्रगट पायकरि दुष्ट निको प्रसन्नताके अर्थ त्यागें हैं ॥७१॥
प्रमरनरविभूति यो विधायार्थनीया, नयति निरपवादां ली नया मुक्ति लक्ष्मीम् । अमितगतिजिनोक्तः, सेव्यतामेष धर्मः,
शिवपदमवद्यं लब्धकामैरफामैः ॥७२॥ अर्थ-- जो धर्म, प्रार्थना योग्य जो देवमनुष्य निकी विभूति ताहि रचि, अर लोलामात्र करि निर्दोष लक्ष्मीको प्राप्त करे है सो अमितगति जिनोक्त कहिए अनन्त है ज्ञान जाका ऐसे जिनदेव करि कह्या अथवा अमितगत्याचार्यकरि कह्या यहु धर्म पापरहित शिवपद लेने वांछक अर रहित काम जे जीव तिनकरि सेवना योग्य है ॥७२॥