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त्रयोदश परिच्छेद
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विनयः कारणं मुक्तविनयः कारणं श्रियः । विनयः कारणं प्राविनय: कारणं मतेः ॥५५॥
अर्थ-विनय है सो मुक्तिका कारण है अर विनय है सो लक्ष्मीका कारण है अर विनय है सो प्रीतिका कारण है अर विनय है सो बुद्धिका कारण है ॥५५॥
विनयेन विना पुसो, न सन्ति गुणसम्पदः ।
न वीजेन विना क्वापि, जायन्ते सस्यजातयः ॥५६॥
अर्थ-जैसे बीज बिना कहुँ भी धान्यकी जाति नाहीं उपजै है तैसें विनय बिना गुणरूप सम्पदा न होय है ॥५६॥
प्रश्रयेण विना लक्ष्मी, यः प्रार्थयति दुर्मनाः ।
स मूल्येन विनानूनं, रत्नं स्वीकत्तमिच्छति ॥५७॥
अर्थ-जो दुष्टचित्त पुरुष विनय विना लक्ष्मीकौं बांछ है सो पुरुष निश्चय करि मोल बिना रत्नकौं अंगीकार करनेकौं इच्छे है ॥५७॥
का संपदविनीतस्य, का मैत्री चलचेतसः ।
का तपस्या विशीलस्य, का कीर्तिः कोपवर्तिनः ॥५॥ अर्थ-विनयरहित पुरुषकी संपत्ति कहां, अर चलायमान है चित्त जाका एंसे पुरुषकी मित्रता कहां, अर शीलरहित पुरुषकी तपस्या कहां अर क्रोधी पुरुषकी कीर्ति कहां ॥५८।।
न शठस्येह यस्यास्ति, तस्यामुरु कथं सुखम् । न कच्छे कर्कटीयस्य, गृहे तस्य कुतस्तनी ॥५६॥
अर्थ-जा पुरुषकै इस लोक मैं संतोषरूप सुख नाहीं ताक परलोकमें सुख कैसै होय । जसैं जाकी वाड़ीमैं ककड़ी नाहीं ताके घरमैं काहे की होय, अपितु नाहीं होय ॥५६॥
लाभालाभौ विबुद्धयेति, भो विनीताविनीतयोः । विनीतेन सदा भाव्यं, विमुच्याविनयं त्रिधा ॥६०॥