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________________ ३१० ] श्री अमितगति श्रावकाचार दोहा मन वच काय विशुद्ध करि, जो धारै व्रत शुद्ध । नाशि कर्म - मल मोक्षपद, पार्व सो अविरुद्ध ॥ ए श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचार विषै द्वादशमां परिच्छेद समाप्त भया । त्रयोदश परिच्छेद । शशांकामसम्यको, व्रत्ताभरणभूषितः । शीलरत्नमिवाखानिः पवित्रगुणसागरः ॥१॥ अर्थ - शशांकादिमलरहित चन्द्रमासमान निर्मल है सम्यक्त जाका अर व्रतरूप आभूषण करि शोभित अर शीलरत्नके उपजायवेकौं खानिसमान अर निर्मल गुणनिका समुद्र ऐसा है ॥ १ ॥ ऋजुभूतमनोबुद्धिर्गुरुशुश्रूषणोद्यतः । जिनप्रवचनाभिज्ञः श्रावकः सप्तधोत्तमः ॥ २ ॥ ॥ अर्थ- - अर सरल है मनसम्बन्धी बुद्धि जाकी अर गुरुकी सेवा विषै उद्यमी है अर जिनागमका जाननेवाला है ऐसा उत्तम श्रावक सातप्रकार जानना ॥२॥ " निसर्गजरुचौ जन्तावेकांत रुचिराजिते । असहाय महाप्राज्ञे सदायतन सेवके ॥३॥ कृतानायतनत्यागे परदृष्ट्यविमोहिते । सासनासादनाहीने जिनशासन ह ॥४॥ सोपानं सिद्धिसौधस्य कल्मषक्षपणक्षमम् । ज्ञानचारित्रयोर्हेतुः स्थिरं तिष्ठति दर्शनम् ॥५॥ अर्थ - ऐसे पुरुष विषें सम्यग्दर्शन निश्चल तिष्ठे है जो स्वभावजनित रुचि जाकै अर निश्चय प्रतीति करि शोभित अर सहायरहित महाबुद्धिवान सदा आयतन जो अहंतादि तिनका सेवक अर किए हैं
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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