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श्री अमितगति श्रावकाचार
दोहा
मन वच काय विशुद्ध करि, जो धारै व्रत शुद्ध । नाशि कर्म - मल मोक्षपद, पार्व सो अविरुद्ध ॥ ए श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचार विषै द्वादशमां परिच्छेद समाप्त भया ।
त्रयोदश परिच्छेद । शशांकामसम्यको, व्रत्ताभरणभूषितः । शीलरत्नमिवाखानिः पवित्रगुणसागरः ॥१॥
अर्थ - शशांकादिमलरहित चन्द्रमासमान निर्मल है सम्यक्त जाका अर व्रतरूप आभूषण करि शोभित अर शीलरत्नके उपजायवेकौं खानिसमान अर निर्मल गुणनिका समुद्र ऐसा है ॥ १ ॥
ऋजुभूतमनोबुद्धिर्गुरुशुश्रूषणोद्यतः ।
जिनप्रवचनाभिज्ञः श्रावकः सप्तधोत्तमः ॥ २ ॥ ॥
अर्थ- - अर सरल है मनसम्बन्धी बुद्धि जाकी अर गुरुकी सेवा विषै उद्यमी है अर जिनागमका जाननेवाला है ऐसा उत्तम श्रावक सातप्रकार
जानना ॥२॥
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निसर्गजरुचौ जन्तावेकांत रुचिराजिते । असहाय महाप्राज्ञे सदायतन सेवके ॥३॥ कृतानायतनत्यागे परदृष्ट्यविमोहिते । सासनासादनाहीने जिनशासन ह ॥४॥
सोपानं सिद्धिसौधस्य कल्मषक्षपणक्षमम् । ज्ञानचारित्रयोर्हेतुः स्थिरं तिष्ठति दर्शनम् ॥५॥
अर्थ - ऐसे पुरुष विषें सम्यग्दर्शन निश्चल तिष्ठे है जो स्वभावजनित रुचि जाकै अर निश्चय प्रतीति करि शोभित अर सहायरहित महाबुद्धिवान सदा आयतन जो अहंतादि तिनका सेवक अर किए हैं