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________________ द्वादशम परिच्छेद | २८३ सुखस्य प्राप्यते येषां न प्रमाणं कदाचन । श्राकाशस्यैव नित्यस्य निर्मलस्य गरीयसः ॥२२॥ पश्यंति ये सुखी भूता लोकाग्रशिखरस्थिताः । लोकं कर्मभ्रं कुशेन नाट्यमानमनारतम् ॥२३॥ येषां स्मरणमात्रेण पुंसा पापं पलायते । ते पूज्या न कथं सिद्धा मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ २४ ॥ अर्थ - जिनमें निर्मल ध्यान अग्नि करि अष्टकर्मकौं जलायकै आत्माका हित अर अविनाशी ऐसा सम्यक्तादि अष्ट गुणरूप ऐश्वर्य पाया ||१६|| बहुरि क्षुधा तृषा भ्रम पसेव निद्रा हर्ष इत्यादिकके अभावतें क्षुधादिकके दूर करनेवाले जे अन्नपान आसन स्थान सोवना आभूषण इत्यादिकनि करि जिनसिद्धनिके कदाचित् प्रयोजन नाहीं, जानें वांछित कार्यकी सिद्धि भये कारणका ढूढ़ना वृथा है । भावार्थ - लोक मैं क्षुधादिककी पीड़ा होय है तब अन्नादिक हेरिए है । बहुरि सिद्ध भगवानके क्षुधादिक दोष ही रहे नाहीं तब अनादिrat हैरना काहेकौं चहिए, वह तौ सहज ज्ञानानंदविषै मग्न हैं ।। १७ - १८ ।। बहुरि जिनके कर्म निके अभावतें फेर जन्म न होय है, जातें बीजकौँ नाश भये सन्ते अंकुर कहितें होय, अपितु नाहीं होय । जन्म होनेका कारण कर्म है सो तिनकै अष्ट कर्मका अभाव भया अब जन्म कैसे होय ॥ १६ ॥ बहुरि कर्मजनित रागद्वेषादि दोष जिनक नहीं हैं जातें निमित्त रहित कहूँ भी न अवलोकिए है । मोहादि कर्म निमित्त पाय नैमित्तिक रागादि होय है । अब सिद्धी - निकै मोहादि कर्म निमित्त रह्या नाहीं नैमित्तिक रागादि काहेतें होय अपितु नाहीं होय ||२०|| बहुरि ये सिद्ध भगवान मोक्ष अवस्थाकौं
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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