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________________ एकादश परिच्छेद [२७५ ज्ञानेन तेन विज्ञाय दानपुण्यप्रभावतः । त्रिदशीभूतमात्मानं ते भजन्ति सुखासिकाम् ॥११०॥ अर्थ-तिस ज्ञानकरि दानके पुण्यके प्रभावतें आपकौं देव भया . जानिक ते देव सुखरूप समाधानताकौं भजे हैं ॥११०॥ प्रीतेनामरवर्गेण स्वसंबंधेन सादरम् । क्रियमाणास्ततस्तुष्टा भजन्ते जननोत्सवम् ॥१११॥ अर्थ-तापीछे आपके सम्बन्धी जो प्रीतियुक्त देवनिका समूह ताकरि प्रसन्न करे भये जन्मोत्सवकौं भजे हैं ॥१११॥ ज्ञात्वा धर्मप्रभावेन तत्र प्रभवमात्मनः । पूजयंति जिनार्चास्ते भक्त्या धर्मस्य वृद्धये ॥११२॥ अर्थ-धर्मके प्रसाद करि तहाँ स्वर्गमैं आपकौं जानिक ते देव धर्मकी वृद्धिके अथि जिन भगवानकी प्रतिमानकौं भक्ति सहित पूजें हैं ॥११२॥ सुखवारिनिमग्नास्ते सेव्यमानाः सुधाशिभिः । सर्वदा व्यवतिष्ठते प्रतिविबैरिवात्मनः ॥११३॥ अर्थ-ते देव सुखजल विष डूबै अर अपने प्रतिबिंब समान देवनि करि सेये भये सदा काल तिष्ठे हैं ॥११३॥ ते सर्वक्लेशनिर्मुक्ता द्वाविंशतिमुदन्वताम् । आसते तत्र भुजाना दानवृक्षफलं सुराः ॥११४॥ अर्थ ते देव सर्वक्लेश रहित दानरूप वृक्षके फलकौं भोगते संते तहां बाईस सागर तिष्ठ हैं ॥११४॥ तेषां सुखप्रमां वक्ति बचोभिर्यो महात्मनाम् । प्रयाति पदविक्षेपैर्गगनांतमसौ ध्रुवम् ॥११॥ अर्थ-तिन महात्मा देवनिके सुखके प्रमाणकौं जो पुरुष
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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