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________________ २३८ ] श्री अमितगति श्रावकाचार आगैं कुपात्रका रुवरूप कहैं हैंचरति यश्चरणं परदुश्चरं, विकटघोरकुदर्शनवासितः । सकल सत्वहितोद्यतचेतनो, वितथकर्कशवाक्यपराङमुखः ||३४|| धनकलत्रपरिग्रहनिस्पृहो, नियमसंयमशीलविभूषितः । " कृतकषायहृषीकविनिर्जयः प्रणिगदंति कुपात्रमिमं बुधाः ॥ ३५ ॥ अर्थ - जो परकौं कठिन है आचरण जाका ऐसे आचरणको आचरै है, अर विकट अर भयानक ऐसे मिथ्यादर्शन करि वासित है, बहुरि सर्व जीवनिके हित मैं उद्यमी है मन जाका, अर झूठ अर कठोर ऐसे वचनतें पराङ्मुख है ||३४|| बहुरि धन स्त्री परिग्रह निस्पृही है, अर नियम संयमशील इन करि भूषित है, बहुरि करया है कषाय अर इंद्रियनिका पराजय जानें ऐसा है, इस पुरुषकौं पंडितजन हैं ते कुपात्र कहैं हैं ॥ ३५ ॥ भावार्थ - जो कायक्लेशादि करै है अर व्रत धारै अर कषाय इंद्रियनिक भी जीते है अर सम्यक्त रहित है सो कुपात्र है ऐसा जानना ।। ३४-३५॥ आगैं अपात्रका स्वरूप कहैं हैं गतकृपाः प्रणिहन्ति शरीरिणौ, वदति यो वितथं परषं वचः । हरति वित्तमदत्तमनेकधा, मदनवाणहतो भजतेंऽगनाम् ॥३६॥ विविधदोषविधायिपरिग्रहः, पिवति मद्यमयंत्रितमानसः । कृमिकुलाकुलितै प्रसते पलं, कलिकर्मविधानविशारदः कटु बपरिग्रहपंजरः, प्रशमशीलगुणव्रतवर्जितः । गुरुकषायभ' जगमसेवित', विषयलोलमपात्रमुशंति तम् ॥ ३८ ॥ ॥३७॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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