SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशम परिच्छेद [ २३७ पडनेतें भयभीत है ॥२६॥ उपासकाचारको विधिमैं प्रवीण अर मंद करी है समस्त कषायनिकी प्रवृत्ति जाने ऐसा जो पुरुष संसारके नाश विर्षे उद्यमी है ताहि मध्यम पात्र कहैं हैं ॥३०॥ भावार्थ-इति दर्शनादि उद्दिष्टाहारविरतिपर्यंत ग्यारह प्रतिमानकू जो धारै सो श्रावक मध्यम पात्र जाननां। इहां इतना और जानना। पहली दर्शन प्रतिमा तो अवश्य चाहिए ताके होते वाकी दोय प्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमा पर्यंत श्रावक ही है ॥२७-३०॥ ऐसें मध्यम पात्रका स्वरूप कह्या, आगें जघन्य पात्रका स्वरूप कहैं हैंकुमुदबांधवदीधितिदर्शनो, भवजरामरणातिविभीलुकः । कृतचतुर्विध संघहिते हितो, जननभोगशरोरविरक्तधीः ॥३१॥ भवति यो जिनशासनभासकः, सततनिंदनगर्हणचंचुर । स्वपरतत्वविचारण कोविदो, व्रतविधाननिरुत्सुकमानसः ॥३२॥ जिनपतिरिततत्वविचक्षणो, विपुलधर्मपलेक्षणतोषितः । सकलजन्तुदयादितचेतन, स्तमिह पात्रमुशंति जघन्यकम् । ३३॥ अर्थ--चन्द्रमाकी किरण समान निर्मल है सम्यग्दर्शन जाका बहुरि जन्म जरा मरणको पीडातें भय है अर करया है च्यार प्रकार संघके हितविष हित कहिये प्रीतिरूप भव जानें अर संसारके भोग शरीरविर्षे विरक्त है बुद्धि जाकी ॥३१॥ बहरि जो जिन शासनका प्रकाशक है, अर निरन्तर अपनी निंदा गर्दा विर्षे प्रवीण है, बहुरि आत्मतत्व अर परतत्व इनके विचारमैं पंडित है, बहुरि व्रतनिके आचरणविष निरुत्सुक है मन जाका। भावार्थ व्रत न धार सकै है ॥३२॥ बहुरि जिनभाषित तत्वविर्षे विचक्षण है, अर बड़ा जो धर्मका फल ताके देखनेते सन्तुष्ट है । भावार्थ-धर्मका मुख्य फल जो मोक्ष ता सिवाय अन्य फल न चाहै है, अर समस्त प्राणीनिकी दया करि भीज रहा है चित्त जाका ऐसा जो अविरत सम्यग्दृष्टी ताहि इहां जघन्यपात्र कहैं हैं ।।३३।।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy