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नवम परिच्छेद
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भव्यक्षोणीषु तद्यः क्षतनिखिलमलं मुंचते दानतोयं, तुल्यस्तस्योपकारी मधुर प्रकृतो भव्यमेघस्य नान्यः ॥ १०८ ॥
अर्थ--समस्त सुखरूप फलनिके समूहके धारणे मैं प्रवीण जे नानाप्रकार ऐसा सम्यक्त ज्ञान चारित्र यम नियम तप रूप वृक्षनिकी जातिनके प्रबंध ते जाकरि पुष्ट कीजिए हैं, ऐसा जो दानरूप जल ताहि जो भव्यजीवरूप पृथ्वी निविषै त्यागें है वरसे है कैसा है जल नाश किये हैं समस्त मल जानैं ऐसा, सो उपकारी पुरुष मधुर शब्द करनेवाला जो मेघ ताके समान है अन्य ताके समान नाहीं ।
भावार्थ - दान देनेवाला पुरुष मेघके समान है पूर्वोक्त मेघके विशेषण दाताके सम्भव है अन्य कृपणके न सम्भव हैं, ऐसा जानना ॥ १०८ ॥
वात्सल्यासक्तचित्तो नयविनयपरो दर्शनालंकृतात्मा । dard fafear वितरति विधिना यो यतिभ्योऽत्र दानं ॥ कति कुन्दावदाताममितगतिमतां पूरयन्ती त्रिकोकम् । लब्ध्वा क्षिप्रं प्रयाति क्षपितभवभयं मोक्षमक्षीणसौख्यं ॥ १०६ ॥
अर्थ - वात्सल्य कहिए प्रोतिभाव तामैं है आसक्त चित्त जाका बहुरि नीति अर विनय विषै परायण अर सम्यग्दर्शन करि भूषित है आत्मा जाका ऐसा जो पुरुष देने योग्य न देने योग्य वस्तुकौं जानकरि विधिसहित तीनके अर्थ दान देय है सो इस भवविषै तीनलोककौं पूरती ऐसी अनंतज्ञानीनि करि कही जो कुन्दके फूलसमान निर्मल कीर्ति ताहि पाय करि शीघ्र मोक्षकों प्राप्त होय है, कैसा हैं मोक्ष दूर किया है संसारका भय जानें अर अक्षीण है सुख जाविषै ।
भावार्थ - दानी पुरुष इन भवमैं तौ निर्मल कीर्ति पावै है अर परंपराय मोक्षकों प्राप्त होय है यह दानका फल है ऐसा जानना ॥ १०६॥