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________________ २२८] श्री अमितगति श्रावकाचार....... अर्थ--जाकरि विवेक उपजाइए अर जाकरि संयम पालिए अर जाकरि धर्म प्रकाशिए अर जाकरि मोह हनिए ॥ १०३ ॥ अर जाकरि मन निश्चल कीजिए अर जाकरि छेदिए तो नाश किया है पाप जानें ऐसा शास्त्र भव्यजीवनिकौं देना योग्य है ।। १०४ ॥ विवेको न विना शास्त्रं, तमते न तपो यतः । ततस्तपोविधानाथ देयं, शास्त्रमनिदितम् । १०५॥ अर्थ-जाते शास्त्रविना विवेक नाहीं अर विवेकविना तप नाहीं तात तप करनेके अर्थि अनिंदित शास्त्र देना योग्य है ।। १०५ ॥ आग और भी दान देनेयोग्य वस्तुनिकौं कहें हैं ; वस्त्रापात्राश्रयादीनि पराण्यपि यथोचितम् । दातव्यानि विधानेन रत्नत्रितयवृद्धथे ॥१०६॥. वर्य मध्यजघन्यानां पात्राणामुपकारकम् । दानं यथायथं देयं वैयावृत्यविधायिना ।।१०७॥ अर्थ-वस्त्र पात्र अर वसतिका इत्यादि कभी रत्नत्रयकी वृद्धिके अर्थ विधानसहित यथायोग्य देनायोग्य है ॥१०६ ॥ वैयावृत्त्यका करनेवाला जो पुरुष ताकरि उत्तम मध्यम जघन्य पात्रनिका उपकार करनेवाला दाय यथायोग्य देनायोग्य है ।। १०७ ।। भावार्थ-पंच महाव्रतके धारक साधु तो उत्तम पात्र हैं, अर देशव्रती श्रावक मध्यम पात्र हैं, अर अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं सो इनकौं यथायोग्य दान कहिए साधनकौं साधनके योग्य आहारादिक देना, श्रावकनकौं तथा अविरत सम्यग्दृष्टि नकौं योग्य वस्त्रपात्रादिक देना । ऐसें जा पद मैं जो वस्तु देनायोग्य होय सो देना, ऐसा जानना ॥ १०८ ॥ आगें अधिकारकौं संकोचे हैं; पोष्यन्ते येन चित्राः सकलसुखफलस्तोमरोपप्रवीणाः, सम्यक्त्वज्ञानचर्यायमनियमतपोवृक्षजातिप्रवंधाः । .
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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