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नवम परिच्छेद
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दायी है तातें अपना नाही चौरन करि लूट लिए समान है, ऐसा जानना ॥१७॥
साह है " --Aniकते मम साधवः । धनं - यो "3 बांधवा दारुणं दुःखमिति पश्यति चेतसा ॥१८॥
अर्थ-ये साधुजन हैं ते मेरे इस भव विर्षे वा परभव विष सखकौं करै हैं अर बांधव हैं ते भयानक दुःखकौं करें हैं, ऐसा दाता मन विर्षे विचार है ॥१८॥
योऽत्रैव स्थावरं वेत्ति, गृहकार्ये नियोजितम् । सहगामि परं वित्त, धर्मकार्ये यथोचितम् ॥१६॥
अर्थ----जो पुरुष घरके कार्यमैं लगाया जो द्रव्य ताहि इहांही रहनेवाला मान है अर केवल धर्म कार्यमैं लगाया योग्य द्रव्य ताहि संग जानेवाला मान हैं।
भावार्थ-... विवाहादि कार्यमैं द्रव्य लगाया सो तो इस लोकमैं रह्या बाकी धर्म कार्य में लगाया सो द्रव्य पुण्यबंधके कारणनै आपके साथ जाय है ऐसा जानना ॥१६॥
शरदभ्रसमाकारं, जीवितं यौवनं धनम् ।
यो जानाति विचारज्ञो, दत्ते दानं स सर्वदा ॥२०॥
अर्थ- जो पुरुष शरदकालके बादले समान अथिर जीवनकों अर जोबनकौं अर धनकौं जान है सो विचारका जाननेवाला सदाकाल दानकौं देय है ॥२०॥
यो न दत्ते तपस्विभ्यः, प्रासुकं दानमंजसा ।। न तस्याऽऽत्मभरेः, कोऽपि विशेषो विद्यते पशोः ॥२१॥
अर्थ--जो पुरुष तपस्वीनके अथि प्रासुक दानकौं भले प्रकार न देय है तिस आपापोषीकै अर पशूकै किछू विशेष नाहीं है।
भावार्थ-दान न देय है सो पशु समान है जातें अपना उदर तो पशु भी भर लेय है, मनुष्यपनेकी विशेषता तो दानहीतें हैं ॥२१॥