________________
२०८ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
रागद्वेषादि रहित होय, संसारकी असारताका जाननेवाला होय, अर समान देखने वाला होय,
भावार्थ- कोऊका दृष्टानिष्टपनें करि हीनाधिक देखनेवाला न होय, अर उद्यमी होय ॥ १३ ॥ परीषहनिका सहन करनेवाला होय, धीर होय, अर जीती हैं इन्द्रिया जानें ऐसा होय, बहुरि मत्सरता रहित होय अर श्रेष्ठ अध्यात्म शास्त्रका जाननेवाला होय, प्रियवचन बोलनेवाला होय, विषयनिकी वांछा रहित होय ॥१४॥ बहुरि व्रतीनके और निविषै न पाइए ऐसे असाधारण पवित्र गुणनिकरि पवित्र गुणनिकरि वासित होय ।
भावार्थ - व्रती के गुणनि मैं अनुरागी होय, बहुरि लौकिक आचार वा लोकोत्तर कहिए परमार्थ आचार ताना विचार सहित होय, अर च्यार प्रकार संघ विषै वच्छासे गौकी ज्यों प्रीति सहित होय || १५ || बहुरि अस्तिक कहिए परलोकादिक हैं ऐसी अस्ति बुद्धि सहित होय ।
भावार्थ- परलोक नाहीं पुण्य नाहीं इत्यादिक जो नास्तिक बुद्धि ता करि रहित होय, अहंकार रहित होय, धर्मात्मानकी टहल चाकरीमैं तत्पर होय अर सम्यक्त करि भूषित होय ऐसा दाता लोक विषै उत्तम होय है,
भावार्थ - पूर्वोक्त गुणनिसहित होय सो उत्तमदाता जानना ॥१६॥ आगे और भी कहैं हैं
श्रात्मीयं मन्यते द्रव्यं, यो दत्तं व्रतवत्तनाम् ।
शेषं पुत्रक नत्राद्यं स्तस्करै रिव लुंठितम् ॥१७॥
अर्थ - जो दाता व्रतीनिकू दिया जो द्रव्य ताहि अपना मान है बहुरि बाकी रह, या जो द्रव्य ताहि पुत्र स्त्री चौरन करि मानौ लूट लिया तैसा मान है ।
1
भावार्थ- पात्रनिकू दानमैं जो धन लग्या सो तो पुण्यवंध के कारण तैं इस भवमैं वा पर भवमैं आपको सुखदायी हैं तातें अपना है अर पुत्र स्त्री आदिकनिने सो पाप बंध के कारण दोऊ भवमें 'दुख