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प्रथम परिच्छेद
अनन्यलभ्यं स सुवर्णराशि, दारिद्रयदग्धो विजहाति लब्ध्वा ॥ १८ ॥
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श्रर्थ- जो बुद्धिरहित पुरुष कष्टकरि पावने योग्य जो मनुष्यपना ताहि पाय करि धर्मकौं न धारैहै सो दारिद्रयकरि पीडित नर अन्य करि न पावने योग्य ऐसी पाई जो सुवर्णकी राशि ताहि तजैहै ।
भावार्थ - न ग्रहै है ॥ १८ ॥
अनादरं यो वितनोति धर्मे, कल्याणमाला फलकल्पवृक्षे । चिन्तामणिहस्त गतं दुरापं, मन्ये स मुग्धस्तृणवज्जहाति ॥ १६ ॥
अर्थ - जो पुरुष कल्याणनिकी माला जो पंगति सोही भये फल ताके देनेकौं कल्पवृक्षसमान जो धर्म ता विषें अनादरकौं विस्तारैहै, सो मूढ़ दुःखकारी पावनें योग्य हस्तविषें आया जो चिंतामणि ताहि तृणको ज्यों तजैहै, ऐसी मैं मानू हूँ ॥ १६ ॥
दुःखानि सर्वाणि निहन्तुकामनः पीडितप्राणिगणानि धर्मः उपासनीयो विधिना विधिज्ञैरग्निहिमानीव दुरुत्तराणि ॥२०॥
अर्थ - पीड़ित किये हैं जीवनिके समूह जिनने ऐसे जे समस्त दुःख तिनहि नाश करने की है इच्छा जाकैं ऐसे पुरुषनि करि विधिसहित विधिके जाननेवाले नि करि धर्म सेवना योग्य है; जैसें दुःख करि उतरे जाय ऐसे जाडेनको नाश करनेके वांछिकनि करि अग्नि सेवन योग्य है तैसें ।
भावार्थ - जैसे शीत मेटे चाहत हैं तिनकरि अग्नि सेवनो योग्य है, तैसें मिथ्याज्ञानजनित परद्रव्यनिकी तृष्णारूप दुःखकों दूर करे चाहैं हैं तिन करि धर्म सेवना योग्य है ॥२०॥
शस्यानि बीजं सलिलानि मेघं, घृतानि दुग्धं कुसुमानि वृक्षं । कांक्षत्यहान्येष विना बिनेशं, धर्मं विना कांक्षति यः सुखानि ॥ २१ ॥