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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-जैसे पथरनिके समूहविर्षे अमोलक रत्न सुलभ नांहीं तथा जैसे गुनवाननविर्षे कृतज्ञ सुलभ नाहीं, तैसें सारवानपने करि सुखकरि सहित भवनिवि मनुष्यभव सुलभ नाहीं।
भावार्थ-सर्व संसारविर्षे तपश्चरणादिकके साधनपपर्ने करि सारभूत मनुष्यभव पावना अति कठिन है ॥१४॥
शमेन नीतिविनयेन विद्या, शौचेन कीत्तिस्तपसा सपर्या । विना नरत्वेन न धर्मसिद्धिः,
प्रजायते जातु जनस्य पथ्या ॥१५॥ प्रयं-जैसे शमभावविना नीति न होय, अर विनयविना विद्या न होय, अर शौच कहिये निर्लोभपना ताविना कीर्ति न होय, अर तपविना पूजा न होय; तेसैं मनुष्यपर्ने विना जीवके हितरूप धर्मकी सिद्धि कदाचित् न होय है ॥१५॥
अन्नेन गात्रं नयनेन वक्त्रं, नयेन राज्यं लवणेन भोज्यम् । धर्मेण हीनं वत जीवितव्यं,
न राजते चन्दमसा निशीथं ॥१६॥ - अर्थ-जैसे अन्न करि हीन शरीर, अर नेत्रन करि हीन मुख, अर नीतिकरि हीन राज्य, अर लवण करि हीन भोजन, अर चन्द्रमा करि हीन रात्रि न सोहै; तैसें धर्मकरि हीन जीवितव्य नही सोहै है ॥१६॥
शस्येन देश पयसाब्जखण्डं, शौर्येण शस्त्री विटमी फलेन । धर्मेण शोभामुपयाति मो, मदेन दन्ती तुरगो जबेन ॥१७॥
अर्थ-जैसे धान्यकरि देश, अर जलकरि कमलनिका वन, अर शरवोरपनें करि शस्रधारी, अर फलकरि वृक्ष, अर मद करि हस्ती, अर वेगकरि घोड़ा शोभाकौं प्राप्त होय है तैसें मनुष्य धर्मकरि शोभाकू प्राप्त होय है ॥१७॥
मानुष्यमासाद्य सुकृच्छलभ्यं, न यो विबुद्धिविदधाति धर्मम् ।