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________________ १८२] श्री अमितगति श्रावकाचार. सव्याधेरिव कल्पत्वे, विहष्टेरिव लोचने । जायते यस्य सन्तोषो, जिनवकविलोकने ॥१६॥ परीषहवहः शांतो जिनसूत्रविशारदः । सम्यग्दृष्टिश्नाविष्टो, गुरुभक्तः प्रियंवदः ॥२०॥ आवश्यकमिदं धीरः, सर्वकर्मनिषूदनम् । सम्यक्कत क्मसौ योग्यो, नापरस्यास्ति योग्यता ॥२१॥ अर्थ-बहुरि जो सर्व गृह सम्बन्धी कार्यनकौं परके कार्य मान है, अर सुबुद्धी धर्म कार्यनकौं सदा अपने कार्य मानै है ॥१५॥ बहरि जो योवनकौं जीवनकौं घरकौं अर लोकमान्य ऐश्वर्यकौं सबकौं शरदके मेघ समान निरन्तर विनाशिक देखे है ॥१६॥ बहुरि संसार वनमैं दर्शनज्ञान चारित्रके त्रितयकौं जैसै समुद्र विर्षे पड्या रत्न फेर दुर्लभ है तैसैं मानै है ॥१७॥ बहरि मेघनके समूह विर्षे मयूरनके हर्ष होय तथा विछरे पुरुषकै बांवत विर्षे हर्ष होय तथा प्यासकरि पीडित पुरुषकै जल विर्षे हर्ष होय वा बंधेकै छूटने विर्षे हर्ष होय ॥१८॥ वा रोग सहितकै नीरोगपने मैं हर्ष होय अन्धेकै नेत्र विर्षे हर्ष होय तैसें जाकै जिनेन्द्रके मुख देखने विर्षे हर्ष होय है ॥१६॥ बहरि क्षधादि परीषहनिका सहनेवाला होय शांत होय जिनसूत्र विष प्रवीण होय सम्यग्दृष्टि होय मानरहित होय गुरुभक्त होय प्रिय बोलनेवाला होय ॥२०॥ सो यहधीर पुरुष सर्व कर्मका नाश करनेवाला जो यह आवश्यक ताहि करने योग्य है, और पुरुषकै आवश्यक करनेकी योग्यता नाहीं; ऐसा जानना ॥२१॥ आगें फेर कहैं है ; औचित्यवेदकः श्राद्धो, विधान करणोद्यतः । कर्मनिर्जरणाकांक्षी, स्ववशीकृतमानसः ॥१२॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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